स्वानुभूतिथी प्रगट थाय तेवो छे. अहा! ते दया, दान, आदि कोई व्यवहारना भावोथी प्रगट थतो नथी. वळी
चैतन्यस्वभावमय छे. अहा! ज्ञानादि गुण छे ते तेनो स्वभाव छे, अने स्वानुभूतिमां ते प्रसिद्ध थाय छे. वळी
सर्वज्ञस्वभाव छे. अहा! आ सर्वज्ञशक्ति पहेलां जे ज्ञानशक्ति कही तेमां गर्भित छे. अहा! आवो सर्वज्ञस्वभाव स्वानुभूतिमां प्राप्त थाय छे. आवो सूक्ष्म मारग छे भाई!
केटलाक कहे छे ने के-आ तो बहु सूक्ष्म छे. पण शुं थाय? भगवान! तारुं स्वरूप ज सूक्ष्म छे. सूक्ष्मत्व गुण द्रव्यमां व्यापक होवाथी ज्ञान सूक्ष्म, दर्शन सूक्ष्म, आनंद सूक्ष्म, कर्ता सूक्ष्म-एम सर्व गुण सूक्ष्म छे. अहा! आवा सूक्ष्मने पामवानो मारग सूक्ष्म छे भाई! पुण्य-पापना स्थूळ भावोमां ए सूक्ष्म जणातो नथी.
कोईने एम थाय के आ व्यवहारनो निषेध करे छे. पण शुं थाय? वस्तुनुं स्वरूप ज एवुं छे. श्लोकना चारे चरणमां अस्तिथी वात करी छे. आत्मामां अजीव नथी, पुण्य-पाप नथी, व्यवहार नथी एम नास्ति तेमां सिद्ध थई जाय छे. समजाणुं कांई...?
जुओ, आ सामे शत्रुंज्य पहाड उपर पांच पांडवो मुनिदशामां विचरता हता. भगवानना दर्शननो भाव थयो त्यां खबर पडी के भगवान नेमिनाथ तो मोक्ष पधार्या. अरे, भरतक्षेत्रमां भगवाननो विरह पडी गयो. अहा! पांचे मुनिवरोने महिना महिनाना उपवास छे, अने पहाडना शिखर पर ध्यानमग्न ऊभा छे. त्यां दुर्योधनना भाणेजे आवी उपसर्ग मांडयो; धगधगतां लोखंडनां धरेणां तेमने पहेराव्यां. अहा! माथे धगधगतो मुगट, कंठमां धगधगती माळा अने हाथ-पगमां धगधगतां कडां पहेरावी तेणे महामुनिवरो पर भयंकर उपसर्ग कर्यो. धर्मराजा, अर्जुन अने भीम-ए त्रण मुनिवरोए त्यां ज शुकलध्याननी श्रेणी मांडी, केवळज्ञान उपजावी मोक्षपद प्राप्त कर्युं. नाना बे भाईओ सहदेव अने निकुळने जरा विकल्प थई आव्यो के-अरे! मोटाभाई धर्मराजा पर आवो उपसर्ग! आटला विकल्पना फळमां तेमने बे भव थई गया. मोटा त्रण पांडवो पूरण वीतराग थई मोक्षपद पाम्या, ज्यारे नाना बेने जराक विकल्प आव्यो तेमां बे भव थई गया. बन्ने सर्वार्थसिद्धि नामना देवलोकमां ३३ सागरोपमनी आयुस्थितिमां गया. विकल्प आव्यो तो केवळज्ञान अटकी गयुं. जुओ, शुभविकल्प तेय संसार छे. अज्ञानी जीवो शुभभावथी लाभ-धर्म थवानुं माने छे, पण ए एमनो भ्रम ज छे, केमके शुभभाव पण बंधनुं ज कारण छे, अबंध नथी. आवी वात!
अरे भाई! तारा स्वभावमां तो एकलुं सुख-सुख-सुख बस सुख ज भर्युं छे. अहाहा...! वीणाना तारने छेडतां जेम झणझणाट करती वागे छे तेम सुखशक्तिथी भरेला आत्मामां एकाग्र थतां झणझणाट करती सुखना संवेदननी दशा प्रगट थाय छे. पण अरे! एने निज स्वभावनो महिमा नथी! अनंत गुणना रसथी भरेला निजपदनी संभाळ कर्या विना अहा! ते अनादिथी परपदने पोतानुं मानी भवसागरमां गोथां खाया करे छे. अहा! एनी दुर्दशानी शी वात! दारुण दुःखोथी भरेली एनी कथनी कोण कही शके? अरे भाई! अहीं आचार्य भगवान तने तारुं सुखनिधान बतावे छे. तो हवे तो निजनिधान पर एक वार नजर कर. अहा! नजर करतां ज तुं न्याल थई जाय एवुं तारुं दिव्य अलौकिक निधान छे. अहा!
आ हरि ते कोई बीजी चीज नहि, निज शुद्धात्मा चिदानंदघन प्रभु ते हरि छे. जे दुःखने हरे अर्थात् सुखने करे ते हरि छे. पंचाध्यायीमां आवे छे के- ‘हरति इति हरिः’ दुःखना बीजभूत जे मिथ्यात्वादिने हरे ते हरि नाम सुखनिधान आनंदस्वरूप भगवान आत्मा छे. अहा! प्रमाद छोडीने, विषयोनुं वलण छोडीने पोताना हरि नाम भगवान आत्माने एकाग्र थई नीरखवो, भजवो ते सुखनो उपाय छे. ल्यो....
आ प्रमाणे आ पांचमी सुखशक्ति पूरी थई.