Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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६-वीर्यशक्तिः ३९

पण केवां वैराग्यरसथी भरपूर भजवातां एनी वात छे. आवां द्रश्यो जोईने अमने ते वखते वैराग्यनी खुमारी ज चडी जती. अत्यारे तो कांई वात करवा जेवी नथी, तद्दन हलकी कक्षानां दृश्यो बतावाय छे.

समयसारना बंध अधिकारमां छे के भगवान आत्मा शुद्ध, बुद्ध, निर्विकल्प अने उदासीन छे. श्रीमद् पण कहे छे-
“शुद्ध बुद्ध चैतन्यघन स्वयंज्योति सुखधाम
बीजुं कहीए केटलुं? कर विचार तो पाम.”

अहाहा...! लोकमां प्रत्येक आत्मा पूर्ण ज्ञानानंदस्वभावथी भरेलो भगवान छे. पोताना आवा स्वरूपने लक्षमां लई तेमां एकाग्र थतां स्वरूपनी रचनाना सामर्थ्यरूप वीर्यशक्ति पर्यायमां प्रगट थाय छे. आ कर्तव्य ने आ धर्म छे.

भाई! जेने सुखी थवुं होय, संसारनी पीडाथी मुक्त थवुं होय तेणे पोते शुं चीज छे ते जाणवुं जोईए. भगवान कहे छे-भगवान! तुं अनंत शक्तिओनो पिंड प्रभु आत्मा छो. तारी एकेक शक्तिमां बीजी अनंत शक्तिओनुं रूप छे. अहाहा...! अनंत सामर्थ्यथी भरेली एकेक शक्ति अने एवी अनंत शक्तिओथी भरेलो भगवान! तुं चैतन्य-प्रकाशना नूरनुं पूर छो, पण अरे! एणे पोताना अंतरंग स्वरूपने जोयुं नथी! चैतन्यप्रकाशनो पुंज प्रभु पोते पोताने भूलीने अंधारे अटवायो छे. आ पुण्य-पापना भाव ते बापु! अंधारुं छे, ने जड पुण्य-पाप कर्म ए य अंधारुं छे; तथा ए पुण्य-पाप कर्मनुं फळ जे स्वर्ग-नर्क आदि ए य अंधारुं छे, केमके ए सर्वमां चैतन्यप्रकाशनो अभाव छे. अहाहा...! आवो द्रव्यकर्म-भावकर्म-नोकर्मथी रहित शुद्ध बुद्ध प्रभु! तुं चैतन्यप्रकाशनो पुंज आत्मा छो.

अहीं एनी वीर्य नाम बळशक्तिनी वात चाले छे. आ वीर्यशक्ति आत्माना असंख्यात प्रदेशमां व्यापक छे. पोताना स्व-देशमां वीर्यशक्ति सर्वत्र व्यापेली छे. आत्मानो असंख्यात प्रदेश ते स्व-देश छे. रागादि पुण्य-पापना भाव ते पर-देश छे.

अहा! जेम नरकनुं क्षेत्र स्वभावथी दुःखरूप छे, स्वर्गनुं क्षेत्र स्वभावथी लौकिक सुखरूप छे, तेम भगवान आत्मानुं स्वक्षेत्र स्वभावथी वीर्यशक्तिथी भरपूर अतीन्द्रिय ज्ञान अने आनंदरूप ज्ञान अने आनंदनो पाक नीपजे छे. जेम साधारण जमीन होय तेमां लाल कळथी पाके अने ऊंची जमीन होय तो तेमां सुगंधीदार सफेद उज्ज्वळ बासमतीना चोखा पाके तेम आत्मानुं असंख्यप्रदेशथी जे क्षेत्र छे तेमां निर्मळ ज्ञान अने आनंदना मोल पाके छे. पण कयारे? ज्यारे स्वस्वरूपनो अंतरंगमां अंतर्मुख थई स्वीकार करे त्यारे; त्यारे स्वस्वरूपनी रचना करनारुं वीर्य सहज स्फुरायमान थाय छे अने साथे निज ज्ञानानंद स्वभावनां ज्ञान-श्रद्धान उदय पामे छे. अहो! ते समये प्रगट थता अतीन्द्रिय आह्लादनुं शुं कहेवुं! ते वचनातीत ने उपमारहित होय छे. आवो अतीन्द्रिय ज्ञान ने आनंदनो पाक पाके एवुं आत्मानुं स्व-क्षेत्र छे.

पण आ रागादि विकार थाय छे ने? अरे भाई! आत्माना असंख्य प्रदेश छे. तेमां विकार उत्पन्न थाय एवो कोई गुण नथी. जेम सोनानी सांकळीमां आखी सांकळी ते द्रव्य छे, सांकळीना बधा अंकोडा ते एनुं क्षेत्र छे, अने पीळाश, चीकाश, वजन ते एनी शक्तिओ छे तेम आत्मा द्रव्य छे, बधा असंख्य प्रदेश तेनुं क्षेत्र छे, ते असंख्य प्रदेशोमां व्यापीने रहेला अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत सुख, अनंत वीर्य, अनंत प्रभुता, अनंत स्वच्छता इत्यादि अनंत आत्मानी निर्मळ शक्तिओ छे. तेमां विकार उत्पन्न करे एवी कोई शक्ति नथी. पण अरे! अनंतकाळमां एणे कदीय स्वस्वरूपनी द्रष्टि करी नथी! पोताने भूलीने ए परमां ने परमां ज रोकाई रह्यो छे. तेथी तेनी वीर्यशक्ति अनादिथी स्फुरायमान थती नथी अने एने पुण्य-पापरूप भावनी रचना थया ज करे छे. पण ए (पुण्य-पाप) कांई आत्माना वीर्यनुं कार्य नथी. भाई! दया, दान, व्रत, तप, भक्ति, पूजा इत्यादिना शुभभावनी रचना करे ते वीर्य आत्मानुं नथी.

आत्मानु वीर्य तो तेने कहीए जे पर्यायमां पोताना अनंत गुण-स्वभावोना स्वरूपनी रचना करे, अनंत गुणोनी निर्मळ पर्यायो प्रगट करे ते आत्मानुं वीर्य छे. विकारी परिणामनी रचना करे ते आत्माना वीर्यनुं कार्य नथी. अहा! स्वस्वरूपनी रचना करनार वीर्यशक्तिना धारक आत्माने जे देखतो नथी अने पुण्य-पापनी रचना थाय तेने ज (आत्मापणे) देखे छे ते मिथ्याद्रष्टि, अज्ञानी छे अने तेने निरंतर पुण्य-पापना भावोनी ज रचना थया करे छे. भाई! आ बार व्रत ने पांचमहाव्रतनो जे राग एय बधो अचेतन छे, आत्मा नथी. अरे, जे भावथी तीर्थंकर गोत्रनी प्रकृति बंधाय ते भाव पण अचेतन जड छे, ते आत्मा नथी, आत्माना वीर्यनुं कार्य नथी. राग भाव गमे तेवो मंद होय तो य ते