Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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४०ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११ बंधभाव छे, चैतन्यनी विरुद्ध जातिनो छे; तेमां चैतन्यप्रकाशनो अंश नथी, ते पोताने य जाणतो नथी, ने चैतन्यस्वरूप आत्माने य जाणतो नथी माटे ते अचेतन छे. समजाणुं कांई...? अहो! आवो मारग सूरजना प्रकाशना जेवो स्पष्ट दिगंबर संतोए खुल्लो करी दीधो छे. पण देखे तेने देखाय ने!

‘मारा नयननी आळसे रे, नीरख्या न में नयणे हरि’

अरे! ज्ञान, आनंद आदि अनंतगुण-लक्ष्मीथी शोभायमान निज शुद्धात्मा ते श्री हरि-तेने एणे प्रमाद छोडीने अनंतकाळमां दीठा नहि! हवे श्रीहरि नाम शुद्धात्मानी वात पण सांभळवा न मळे ते एनो कयारे विचार करे, अने कयारे एने देखे-श्रद्धे? कयारे एनी रुचि करे? पण आ अनंतकाळे प्राप्त न थाय एवी अलौकिक चीज छे भाई! (एम के एनी प्राप्तिनो आ अमूल्य अवसर छे).

सादी भाषामां तो कहेवाय छे प्रभु! आ स्त्री-पुरुषनां शरीर छे ए तो हाडकां, चामडां ने मांस-माटी छे. ते कांई आत्मा छे? ना; ते आत्मा नहि, ने तेने करे-रचे ते य आत्मा नहि. वळी अंदर पुण्य-पापना भाव थाय छे ते शुं आत्मा छे? ना; ते आत्मा नहि, ने तेने रचे ते य आत्मा नहि; केमके ए तो अचेतन जड तत्त्व छे, ने भगवान आत्मा एकला चैतन्यप्रकाशनो पुंज छे. जेनी स्फुरणा वडे पर्यायमां निर्मळ रत्नत्रयनी-सम्यग्दर्शन-ज्ञान- चारित्रनी रचना थाय तेने आत्मानुं वीर्य अर्थात् आत्मा कहीए; बाकी रागनी-विकारनी रचना करे तेने आत्मानुं वीर्य कोण कहे? ए तो नपुंसक वीर्य छे, केमके एने धर्मनी उत्पत्ति थती नथी; समयसार गाथा १प४नी टीकामां एवा जीवोने क्लीब नाम नपुंसक कह्या छे.

अरे प्रभु! तुं भगवान जेवो भगवान थईने, भिखारीनी जेम पामर बनी संसारमां रझळे छे! तुं त्रण लोकनो नाथ चैतन्यस्वरूप प्रभु-तारा गर्भमां अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख, अनंतवीर्य, सर्वज्ञत्व, सर्वदर्शित्व आदि अनंत निर्मळ शक्तिओ पडी छे तेनो तुं पर्यायमां प्रसव न करे अने पुण्य-पापनो-मलिनतानो प्रसव करे ए शुं तने शोभा दे छे? जुओ, कोई स्त्रीने गर्भ रहे अने ते चोवीस वर्ष सुधी रहे छे. गर्भमां रहेवानी उत्कृष्ट स्थिति चोवीस वर्ष छे एम शास्त्रमां कथन छे. एवी स्थितिमां पण तुं अनंत वार रह्यो भगवान? गर्भवासमां रहेवानी उत्कृष्ट स्थिति २४ वर्षनी छे माटे अनंतकाळे आ अवसर आव्यो छे तो त्रिकाळी द्रव्यस्वभावनुं लक्ष करी, स्वरूपसन्मुख थई हमणां ज पर्यायमां ज्ञान अने आनंदनो प्रसव कर. वीतराग सर्वज्ञ परमेश्वरनी आ आज्ञा छे भाई! लोकोने सत् सांभळवा मळे नहि एटले बिचारा शुं करे? तेओ दया, दान व्रत आदि क्रिया अने शरीरनी क्रियाने पोतानुं कर्तव्य मानी मिथ्याभावना सेवन वडे चार गतिमां रझळी मरे छे. शुं थाय? मिथ्याभावना सेवननुं एवुं ज फळ छे.

भाई! तारी चैतन्यवस्तुना पेटमां (-क्षेत्रमां) अनंत-गुण-लक्ष्मीनो भंडार भर्यो छे. त्यां नजर करवाने बदले बहारनी धनसंपत्ति जोई तुं हरखाय छे पण एमां शुं छे? ए तो धूळनी धूळ (पुद्गल-रज) बापा! आ जोता नथी अति तृष्णावंत मोटा करोडपति ने अबजोपति मरीने क्षणमां कयांय नरकादिमां चाल्या जाय छे! भाई! तारे सुखी थवुं होय तो अंदर (स्वस्वरूपमां) नजर कर.

धर्मना नामे अत्यारे तो व्रत करो, पडिमा लो, उपवास करो, आ करो ने ते करो एम प्ररूपणा चाले छे. पण एमां तो धूळे य धर्म नथी सांभळने. ए तो बधी रागनी क्रिया छे, एमां धर्मनो अंश पण नथी. अरे भगवान! जेवी तारी चैतन्यवस्तु छे तेवी तने न अनुभवाय तो धर्म कयां थशे? अने स्थिरता कयांथी आवशे? बहारनां क्रिया-कर्म वडे तुं धर्म थवानुं माने पण बहारनां कर्म (कार्य) कोण करे ने कोण छोडे? आ जड कर्म-नोकर्म ए तो जड परमाणुनी दशा छे, तेने तुं करी शकतो नथी, छोडी शकतो नथी; पुण्य-पापरूप भावकर्म छे ते विकारी दशा छे, ते तारी शक्तिनुं कार्य नथी; अने निर्मळ सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप वीतरागी कर्म तथा केवळज्ञान अने सिद्धपद ते तारी शक्तिनुं कार्य छे. आत्मा पोते स्वतंत्रपणे स्ववीर्य वडे पोतानी ते निर्मळ पर्यायोने रचे छे. ते निर्मळ पर्यायोने-

कोई इश्वर रचे एम नहि,
कोई परद्रव्य (कर्म आदि) रचे एम नहि, ने
कोई रागनी क्रिया एने रचे एम पण नहि;

अहाहा...! आत्मा पोते ज पोताना स्ववीर्यथी कर्तादि षट्कारकरूप थईने पोतानी सम्यग्दर्शनादिरूप निर्मळ