पर्यायोने रचे छे. सम्यग्दर्शनथी मांडी सिद्धपद सुधीनी निर्मळ पर्यायने रचनारो पोते ज अनंत शक्तिमान ‘इश्वर’ छे. आवी वात!
भाई! तारा सर्वज्ञस्वभावना सामर्थ्यनी-वीर्यनी शी वात! अहाहा...! एक समयमां सर्व लोकालोकनी भूत, भावि अने वर्तमान समस्त पर्यायोने जाणी ले एवी सर्वज्ञशक्ति आत्मद्रव्यमां त्रिकाळ पडी छे. त्यारे कोई वळी कहे छे-वर्तमान प्रगट वर्तती पर्यायने सर्वज्ञ जाणे, पण भूत, भविष्यने न जाणे; पण तेनी आ वात बराबर नथी, मिथ्या छे. तेने पोताना सर्वज्ञस्वभावना स्वरूपनी ने भगवान सर्वज्ञना दिव्य ज्ञाननी खबर नथी. अरे, जे सर्वज्ञनुं स्वरूप पण बीजी रीते माने तेने आत्मानी प्रतीति कयांथी थाय? न थाय. अरे भाई! जेम परमाणु एक समयमां १४ राजुलोक गमन करे ए परमाणुनी गतिनुं वीर्य छे तेम भगवान आत्मा एक समयमां त्रिकाळवर्ती सर्व लोकालोकने साक्षात् जाणी ले एवुं एनी सर्वज्ञशक्तिनुं वीर्य छे. अहा! आवुं दिव्य ज्ञान भगवान केवळीने होय छे.
अहा! आवी (-कोई अचिंत्य, दिव्य) आत्मामां सर्वज्ञशक्ति छे ने साथे बळशक्ति-वीर्यशक्ति पण छे. आ वीर्यशक्ति भिन्न छे, वीर्यशक्ति सर्वज्ञशक्तिरूप नथी पण सर्वज्ञशक्तिमां वीर्यशक्तिनुं रूप छे. आत्मानी प्रत्येक शक्तिमां बीजी अनंत शक्तिओनुं रूप होय छे. आ रीते ज्ञान, दर्शन, सुख, प्रभुता, सर्वज्ञत्व, सर्वदर्शित्व इत्यादि अनंतगुणमां वीर्यशक्तिनुं रूप होय छे; जेमके ज्ञानवीर्य, दर्शनवीर्य, सुखवीर्य इत्यादि. अहो! आवी अनंत शक्तिओनो सागर प्रभु आत्मा छे. तेनी सन्मुख दृष्टि करवाथी वीर्यशक्ति स्फुरायमान थई अनंत गुणनी निर्मळ पर्यायनी रचना करे छे. आनुं नाम आत्मवीर्य छे. लोकोने आ विषयनो (-अध्यात्मनो) अभ्यास नहि एटले कोरा क्रियाकांडमां लागी जाय छे; पण ए बधी तो एकला रागनी-क्लेशनी क्रियाओ छे. छहढालामां कह्युं छे ने के-
पै निज आतमज्ञान बिना, सुख लेश न पायो.
आनो अर्थ शुं? पंच महाव्रत अनंतवार पाळ्यां छतां आत्मज्ञान विना लेश पण सुख न थयुं अर्थात् दुःख ज थयुं एनो अर्थ शुं? ए ज के पंचमहाव्रतनां परिणाम पण सुखरूप नथी, दुःखरूप छे. अहीं कहे छे-आवा दुःखनी रचना करे ते आत्मानुं वीर्य नथी; स्वरूपलीनता ने स्वरूप-एकाग्रताना ध्यान वडे निर्मळ रत्नत्रय प्रगट करे ते आत्मानुं वीर्य छे, ते पुरुषार्थ छे. समजाय छे कांई...?
स्वरूपरचनाना सामर्थ्यरूप वीर्यशक्ति छे. त्यां द्रव्य अने गुणमां तो रचना करवापणुं शुं छे? द्रव्य-गुण तो त्रिकाळ ध्रुव एकरूप छे; तेमां रचना करवापणुं कांई नथी. जे कांई रचना थाय ते पर्यायमां थाय छे. स्वरूपनी पर्यायमां रचना थाय ते वीर्यशक्तिनुं कार्य छे. ज्ञान, दर्शन आदि अनंत गुणनी निर्मळ परिणतिनी रचना थाय ते वीर्यनुं कार्य छे. हवे आमां व्यवहारनी रचना करे एम न आव्युं, केमके निर्मळ परिणतिमां व्यवहारनो-रागनो अभाव छे. व्यवहार छे खरो, पण तेने तो ज्ञान बस (भिन्न) जाणे ज छे. झीणी वात जरी. ज्यां स्व-आश्रये ज्ञान-श्रद्धान-चारित्रनी शुद्ध परिणति प्रगट थई ते समये राग छे तेने ज्ञान मात्र जाणे छे बस. रागने जाणे छे एम कहीए ए व्यवहार छे. ते समये प्रगट थयेली ज्ञाननी स्वपरप्रकाशक दशा सहज ज पोतामां भिन्न रहीने पोताथी ज रागने जाणे छे, रागने लईने जाणपणुं छे एम नहि; पोतानी ज्ञाननी पर्याय ज एवा सामर्थ्यवाळी छे के ते स्व अने परने पोताथी जाणे छे. हवे कोई लोको कहे छे के व्यवहार-शुभराग करतां करतां निश्चय-शुद्ध दशा प्रगट थशे पण तेमनी ए वात मिथ्या छे. तेमने आत्मानी निर्मळ वीतराग परिणति केम प्रगट थाय एनी खबर नथी अर्थात् तेमने निर्मळ परिणतिने रचनारुं वीर्य स्फुर्युं ज नथी.
अरे! भगवान सर्वज्ञ परमेश्वरना अत्यारे भरतक्षेत्रमां विरह पडया! विदेहक्षेत्रमां तो साक्षात् परमात्मा सर्वज्ञपदमां बिराजमान छे. एक क्रोड पूर्वनुं तेमनुं आयुष्य छे. एक पूर्वमां ७० लाख प६ हजार क्रोड वर्ष व्यतीत थाय छे. ए भगवानना मुखमांथी नीकळेली आ वाणी श्री कुंदकुंदाचार्यदेव अहीं भरतमां लाव्या छे. अहाहा...! भगवान कुंदकुंददेव नग्न दिगंबर भावलिंगी महा संत हता. मोरपींछ अने कमंडळ सिवाय तेमने कोई परिग्रह नहोतो. तेओ सदेहे विदेह गया हता, आठ दिवस रह्या हता. त्यांथी आवीने भगवाननी वाणी अनुसार आ महान परमागमनी रचना करी छे. समयसारनी प्रथम गाथामां कहे छेः-