Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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४२ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११

वंदित्तु सव्वसिध्दे धुवमचलमणोवमं गदिं पत्ते।
वोच्छामि समयपाहुडमिणमो सुदकेवली भणिदं।।

कहे छेः- श्रुतकेवळीओए कहेला आ समयसार नामना प्राभृतने कहीश. आचार्य अमृतचंद्रस्वामीए एम अर्थ कर्यो छे के केवळी अने श्रुतकेवळीनुं कहेलुं आ समयप्राभृत कहीश.

नियमसारनी प्रथम गाथामां श्रीमद् भगवत् कुंदकुंदाचार्यदेव कहे छेः-
वोच्छामि णियमसारं केवलि सुद केवली भणिदं।।

केवळी अने श्रुतकेवळीनुं कहेलुं नियमसार हुं कहीश. केवुं छे नियमसार? केवळी अने श्रुतकेवळीओए कहेलुं छे, भाई! केवळी परमात्माए साक्षात् कहेलुं आ शास्त्र छे. वळी श्री कुंदकुंदाचार्यदेव विदेहमां पधार्या हता ते संबंधी देवसेनाचार्यरचित दर्शनसार शास्त्रमां आ लेख छेः

“(महाविदेहक्षेत्रना वर्तमान तीर्थंकर देव) श्री सीमंधरस्वामी पासेथी मळेला दिव्य ज्ञान वडे श्री पद्मनंदिनाथे (श्री कुंदकुंदाचार्यदेवे) बोध न आप्यो होत तो मुनिजनो साचा मार्गने केम जाणत?”

आ प्रमाणे आचार्य कुंदकुंददेव भगवान पासे साक्षात् जईने आ बोध लाव्या छे. तेमां अहीं कहे छेः- स्वरूपनी रचनाना सामर्थ्यरूप वीर्यशक्ति छे. अहाहा...! स्वरूपनां श्रद्धान-ज्ञान-रमणतारूप जे शुद्ध चैतन्यपरिणतिनी रचना थाय ते कहे छे, वीर्यशक्तिनुं कार्य छे. आत्मा पोते पोतानी वीर्यशक्ति वडे शुद्ध वीतराग परिणतिनी रचना करे छे. आ शुद्ध परिणति व्रतादि प्रशस्त रागनुं कार्य होय एम कदीय नथी. अहा! जेम आत्मामां वीर्य गुण छे तेम एक अकार्यकारणत्व नामनो गुण छे. वीर्यगुणमां आ अकार्यकारणत्वनुं रूप छे, जेथी स्वरूपनी रचना थाय तेमां व्यवहार रत्नत्रयनो राग कारण अने स्वरूपनी रचना थाय ते तेनुं कार्य एम कदीय नथी. अहा! आत्मा रागनुं कारण पण नथी अने कार्य पण नथी. चैतन्य-चैतन्यभाव कारण ने राग तेनुं कार्य एम कदीय नथी. ल्यो, आवुं स्पष्ट वस्तुस्वरूप होवा छतां व्यवहारथी निश्चय थाय एम बधी गरबड अत्यारे चाले छे; पण भाई! रागभाव तो पामरता छे, तेनाथी प्रभुता केम प्रगट थाय? अने निर्मळानंदनो नाथ आत्मा चिदानंद प्रभु छे ते रागभावरूप क्लेशने केम रचे?

पहेलां शराफने त्यां कोई वार खोटो रूपियो कयांकथी आवी जातो तो तेने बहार फरतो मूकवामां न आवतो, पण दुकानना उंबरामां खीलीथी जडी देवातो. तेम आ भगवान वीतराग सर्वज्ञदेवनी शराफी पेढी छे; तेमां खोटी वात चालवा न देवाय. परमात्मानी सत्यार्थ वात अहीं संतो आडतिया थई जगत समक्ष जाहेर करे छे. कहे छे-भगवान! तारामां वीर्य नामनो जे गुण छे तेनुं रूप आत्माना बीजा अनंत गुणोमां छे. तेथी अनंता गुणो पोताना वीर्यथी पोताना स्वरूपनी-सम्यग्दर्शनादिनी रचना करे छे, पण विकारनी रचना करता नथी. भाई! तारो वीर्यगुण स्वभावथी ज एवो छे के आत्मा कोई परनी के विकारनी रचना करी शके नहि. जो वीर्य गुण विकारने- रागादिने रचे तो ते सदाय रागादिने रच्या करे! -तो पछी आत्मानी रागरहित वीतराग मुक्तदशा केवी रीते थाय? तेथी परवस्तुमां कांई करे के विकारने रचे एवुं खरेखर आत्मानुं बळ-वीर्य नथी. वळी स्वरूपनी-सम्यग्दर्शनादिनी रचना जे थाय ते परनुं के रागनुं कार्य नथी. परवस्तु (देवादि) के रागादिभाव (व्यवहार रत्नत्रय) स्वरूपरचनानुं कारण नथी. अहो! कोईनी पण ओशियाळ न रहे एवो आत्मानो वीर्यगुण अलौकिक छे! समजाणुं कांई...? माटे सावधान थई स्वरूपनी संभाळ कर.

प्रश्नः– जो आत्मा परनुं कांई न करे तो आ जगतनी रचना कोण करे? समाधानः– अरे भाई! छ द्रव्यमय आ लोक छे ते अकृत्रिम छे, स्वयंसिद्ध छे, कोई एनो रचनारो छे एम छे ज नहि. आत्मा परनी रचना करे एम मानवुं ए तो महामूढता छे. अज्ञानीओ ज कोई परने (इश्वरने) जगतनो रचनारो माने छे; बाकी जेमने अनंतआत्मबळ-अनंतवीर्य प्रगटयुं छे एवा अरहंत के सिद्ध भगवान पण परनी रचना करवानुं सामर्थ्य धरावता नथी. पोताना स्वरूपनी रचना करवानुं पूरण अनंत सामर्थ्य छे, पण परनुं कांई पण करवामां तेओ पंगु छे, अर्थात् लेशपण सामर्थ्य धरावता नथी.

वळी आत्मा पोते ज पोतानी पर्यायनी रचना वीर्यशक्ति वडे करे छे, कोई इश्वर के पर निमित्त आत्मानी- पर्यायनी रचना करे एम त्रण काळमां नथी. अहा! आवी वीर्यशक्ति आत्मामां त्रिकाळ छे. आवी पोतानी वीर्यशक्ति