जाणी अभेद चिन्मात्र नित्यानंदस्वरूप आत्मवस्तुमां तन्मय थई प्रवर्तवुं ते धर्म छे, ते मोक्षमार्ग छे.
प्रश्नः– वीर्यगुण विकारने रचतो नथी, तो पछी विकार थाय छे केम? उत्तरः– अनादिकाळथी जीव अज्ञानी पर्यायदृष्टि छे. ते पर्यायबुद्धिथी ज विकारने उत्पन्न करे छे. पर्यायबुद्धिमां ज विकारनी रचना छे. पोते ज्यांसुधी परमां ने पर्यायमां अटकयो छे त्यां सुधी विकारनी रचना थाय छे. बाकी स्वभावमां विकार नथी, ने स्वभाव-दृष्टिमां-द्रव्यदृष्टिमां विकारनी रचना थती नथी. आत्मानी वीर्यशक्ति स्वभावदृष्टि थतां स्वरूपनी-निर्मळ निर्मळ पर्यायनी ज रचना करे छे. माटे हे जीव! पर्यायबुद्धिनो त्याग करी स्वभावनी दृष्टि कर. अरे भाई! तारा स्वभाववीर्यमां चैतन्यनी जेटली शक्तिओ छे ते बधानुं रूप छे. दृष्टिमां ज्यां शुद्ध अंतःतत्त्वनो स्वीकार थयो त्यां पर्यायमां अनंतगुणोनी निर्मळ पर्यायनुं कार्य प्रगट थाय छे, ने आ निर्मळ पर्याय ते मोक्षमार्ग छे. (पर्यायबुद्धि ते संसारमार्ग छे).
पंडित दीपचंदजी काशलीवाले ‘चिद्दविलास’ ग्रंथमां वीर्यशक्तिनुं बहु वर्णन कर्युं छे. द्रव्यवीर्य, गुणवीर्य, पर्यायवीर्य, क्षेत्रवीर्य, काळवीर्य, तपवीर्य, भाववीर्य इत्यादि त्यां विशेष (वात) छे. द्रव्य द्रव्यथी शक्तिवान छे, पर्याय पर्यायथी शक्तिवान छे इत्यादि. द्रव्यनुं (-आत्मानुं) जे असंख्यप्रदेश क्षेत्र छे ते क्षेत्रवीर्य छे. आ क्षेत्रवीर्य पोताथी रह्युं छे. नरक दुःखनुं क्षेत्र छे, स्वर्ग संसारसुखनुं क्षेत्र छे-ए तो संयोगथी क्षेत्रनी वात छे. भगवान आत्मानुं असंख्यप्रदेश-क्षेत्र छे ते क्षेत्रवीर्य छे. आ असंख्यप्रदेशरूप वीर्य सुखस्वरूप छे. असंख्यप्रदेशमां जेनो निवास-वास्तु छे तेने अतीन्द्रिय आनंदनो अनुभव थाय छे, अने पुण्य-पापरूप रागादिमां जेनो निवास छे तेने दुःखनुं वेदन थाय छे. आवो भगवाननो मारग बहु झीणो-सूक्ष्म!
आत्मा पोते सूक्ष्म छे. आत्मामां सूक्ष्मत्व नामनो गुण छे ने! तेथी आत्मानी दरेक चीज सूक्ष्म छे. ज्ञानसूक्ष्म, दर्शनसूक्ष्म, आनंदसूक्ष्म, वीर्यसूक्ष्म इत्यादि बधुं सूक्ष्म छे. तेवी रीते वीर्यनुं रूप पण द्रव्यवीर्य, क्षेत्रवीर्य, काळ (पर्याय) वीर्य ने भाववीर्य इत्यादिपणे छे. आम दीपचंदजीए खूब विस्तारथी वात करी छे. अहाहा...! दीपचंदजी साधर्मी गृहस्थ हता. लोकमां कोई करोडपति आसामीने गृहस्थ कहे ते नहि, ए तो खरो गृहस्थ नथी; आ तो पोताना चैतन्यघरमां जे स्थित छे ते साचो गृहस्थ एम वात छे. पोताना चैतन्यस्वभावमां एकाग्र थई स्थित थवुं ते आत्मवीर्य छे. पोताना द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावमां पोतानुं काम करे ते पोतानुं वीर्य छे; पुण्य-पापमां स्थित थाय ते आत्मवीर्य नथी.
द्रव्यना आलंबनथी जे मोक्षमार्गनी निर्मळ पर्याय प्रगट थाय ते पर्यायनुं क्षेत्र भिन्न छे अने द्रव्य-गुणनुं क्षेत्र भिन्न छे. द्रव्यानुयोगनी वात बहु सूक्ष्म छे भाई! संवर अधिकारमां आव्युं छे के-विकार जुदी वस्तु छे, तेनुं क्षेत्र द्रव्य-स्वभावथी भिन्न छे. पर्यायनुं क्षेत्र पर्याय, पर्यायनी शक्ति पर्याय, पर्यायनुं कारण पर्याय छे. द्रव्य-गुण ते पर्यायनुं खरेखर कारण नथी. सर्वज्ञ परमेश्वर सिवाय आवी वात बीजे कयांय छे नहि. अहा! सर्वज्ञ परमेश्वरे जे आत्मा जोयो तेनी आ वात छे. एक स्तवनमां आवे छे ने के-
निजसत्ताए शुद्ध, सौने देखता हो लाल.
हे परमात्मा! आप त्रणकाळ त्रणलोक देखो छो. तेमां आत्मा निज सत्ताए शुद्ध पवित्रधाम प्रभु छे एम आप जाणो छो. अनादिअनंत अकारण शुद्ध चैतन्यसत्तास्वरूप जीववस्तु छे एम आपे केवळज्ञानमां जोयुं छे. अहा! सर्वज्ञ परमात्माए जोयेला आवा आत्माने-निज शुद्ध अंतःतत्त्वने-अंतर्मुख थई देखे छे तेने सम्यग्दर्शन आदि धर्म प्रगट थाय छे, आनुं नाम आत्मवीर्यनी स्फुरणा छे. बाकी जे पुण्यभावमां स्थित रहे छे तेनुं आत्मवीर्य स्वरूपनी रचना प्रति जाग्रत थतुं नथी, तेने संसार अर्थात् दुःख ज फळे छे, केमके पुण्यभाव छे ते वर्तमान दुःखरूप छे अने एनां जे फळ पाके छे एय दुःखरूप छे. समयसारनी गाथा ७४मां आवे छे के-आस्रवो-‘दुक्खा दुक्खफल त्ति...’ अर्थात् आस्रवो दुःखरूप अने दुःख फळरूप छे. आथी ज विवेकी पुरुषो पुण्यभावथी पण विरक्त थई निज आत्मवीर्यने स्वरूपनी रचना प्रति जाग्रत करे छे. आनुं नाम पुरुषार्थ छे अने आ मार्ग छे.
आ प्रमाणे छट्ठी वीर्यशक्ति अहीं पूरी थई.