४६ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११
अहाहा...! आत्मद्रव्य अने तेनी एकेक शक्ति अने तेनी निर्मळ व्यक्तिनी प्रभुतानो अखंड प्रताप छे, अने ते स्वतंत्र-स्वाधीनपणे शोभायमान छे. जुओ, आ शोभा-शणगार! आ शरीर पर घरेणांनो शणगार करे छे ने! ए तो धूळे य शणगार नथी सांभळने; ए तो मडदानो-माटीनो शणगार छे. देहनां शणगार-शोभा ए कांई आत्मानी शोभा नथी, ने देहना नेहरूप परिणमे ए पण आत्मानी शोभा नथी. अहाहा...! देह अने रागथी भिन्न अंदर चैतन्य चिदानंद प्रभु छे तेनी सन्मुख थई परिणमे ते आत्मानी शोभा छे, अने ते धर्म छे. अहा! जुओ तो खरा! भावलिंगी मुनिराज देहनी शोभाथी (संस्कारथी) रहित छे. अहा! तेओ आहार लेवा माटे नगरमां जाय ने कोई रुदन संभळाय तो आहार लीधा वीना ज वनमां पाछा फरी जाय छे. अहा! स्वाधीनपणे शोभित मोक्षमार्गने साधवा नीकळ्या त्यां आ अशोभनिक शुं? अहा! आनंदनो भंडार खोलवो छे त्यां आ देहने शुं भरवो? ल्यो, आम विचारी दुःखनो चित्कार सांभळतां ज आहार लीधा विना ज वनमां चाल्या जाय छे अने स्वस्वरूपमां लीन थई जाय छे.
ओहो! अंदरमां त्रणलोकनो नाथ भगवान विराजे छे, पण भाई! तने तेनी किंमत नथी. कोई लाकडां वेचनारा एक कठियाराने जंगलमांथी एक हीरो जडयो. तेणे घेर आवीने पोतानी स्त्रीने ते आप्यो अने कह्युं-आ पथ्थर खूब चमकदार छे एटले हवे आपणे ग्यासतेलनो दीवो नहि करवो पडे. एक दिवस एक हीरा-पारखु (झवेरी) तेना घर आगळ थई नीकळ्यो. तेणे हीरानो प्रकाश जोयो. तेणे कठियाराने कह्युं-मने आ चमकतो पथ्थर आप, तेना बदलामां हुं तने एक हजार सोनामहोर आपुं. त्यारे कठियाराने खबर पडी के आ पथ्थर तो सर्व दरिद्रतानो नाश करे एवो महा किंमती हतो. ‘अनुभव प्रकाश’मां आ दृष्टांत आव्युं छे. तेम अहीं कहे छे-भाई! आ आत्मा चैतन्य-हीरलो छे. एना चैतन्यप्रकाशमां आखुं लोकालोक जणाय एवुं तेनुं प्रभुत्व छे. तेना द्रव्य-गुणमां तो प्रभुता भरी ज छे, पण तेना ज्ञान-श्रद्धानरूप जे निर्मळ परिणमन थाय ते पण अखंड प्रतापथी शोभायमान छे. साथे अतीन्द्रिय आनंदनी पर्याय उत्पन्न थाय तेमां पण प्रभुतानो अखंड प्रताप शोभे छे. अहा! स्वाधीनपणे शोभित ज्ञान-आनंदनी दशानी प्रभुताने कोई लूंटी के नुकसान करी शके एम नथी.
जुओ, सम्यग्दर्शन केम थाय एनी आमां वात छे. कहे छे-सम्यग्दर्शननी पर्याय स्वतंत्रपणे-स्वाधीनपणे शोभायमान थईने प्रगट थाय छे. आवुं ज तेनुं प्रभुत्व छे. शुभराग-व्यवहारना कारणे सम्यग्दर्शन प्रगट थाय एम कदी य छे नहि, केमके शुभराग परावलंबी छे, स्वालंबी-स्वाधीन नथी. तेवी रीते शुद्ध रत्नत्रयरूप चारित्रनी दशा पण स्वाधीनपणे प्रगट थाय छे, व्यवहार रत्नत्रयना कारणे कांई चारित्र प्रगटे छे एम नथी. व्यवहार रत्नत्रय ए कांई वास्तविक रत्नत्रय नथी, चारित्र नथी; ए तो परावलंबी रागनी ज दशा छे.
अहाहा...! साधु-मुनिवर-संत तो पंच परमेष्ठीपदमां विराजे छे. तेओ लोकमां पूजनीक छे, वंदनीक छे. ‘णमो लोए सव्वसाहूणम्’ एम पाठ छे ने? मतलब के प्रचुर वीतरागी आनंदनी दशा जेने अंतरंगमां प्रगट थई छे एवा चारित्रवंत सर्व निग्रंथ साधुओने नमस्कार छे. अहाहा...! चारित्र एटले शुं? समकितीने स्वभावनो अति उग्र आश्रय अने रमणता थतां चारित्र प्रगट थाय छे. ‘स्वरूपे चरणं चारित्रं’ अहाहा...! ए चारित्रनी दशा अखंडित प्रतापवाळा स्वातंत्र्यथी शोभायमान प्रभुत्वमय छे. समजाणुं कांई...?
भगवान आत्मा चैतन्यशाळी छे. चैतन्यशाळी एटले चैतन्यवंत अने चैतन्यवडे शोभायमान एम बे अर्थ थाय छे. लोकमां करोडोनी संपत्तिवाळाने भाग्यशाळी-भाग्य वडे शोभायमान-कहे छे. पण जड संपत्तिथी कांई जीवनी शोभा नथी, अने तेना तरफनो ममतानो भाव ते महा अशोभनीक पापभाव छे. अरे, धर्मी पुरुषोने तो पंच परमेष्ठी भगवंतो प्रति जे विनय-भक्तिनो भाव आवे छे ते य पोसातो नथी, हेय भासे छे. योगसारमां आवे छे ने के-
पुण्यतत्त्व पण पाप छे, कहे अनुभवी बुद्ध कोई
प्रवचनसारनी गाथामां (गाथा ७७) आ स्पष्ट कह्युं छे के पुण्य ठीक छे अने पाप अठीक छे एम जे बेमां (पुण्य-पापमां) भेद माने छे ते मोहाच्छादित थयो थको घोर अपार संसारमां परिभ्रमे छे. समयसार पुण्य-पाप अधिकारमां पण आवे छे के-शुभाशुभभाव बन्ने कुशील छे. शुभभाव पण कुशील छे. जे भाव जीवने संसारमां दाखल करे तेने सुशील केम कहीए? शुभभाव जीवने संसारमां प्रवेश करावे छे. तेनुं फळ भवसंसार ज छे. तेथी शुभभाव शोभनीक नथी. जे भावथी भवनो अभाव थाय ते शुद्धभाव ज एक उपादेय अने शोभनीक छे. धर्मी पुरुषने शुभभाव