Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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७-प्रभुत्वशक्तिः ४७

हो भले, पण तेने एक शुद्धोपयोगनी ज भावना होय छे.

अहाहा...! भगवान केवळी कहे छे-भाई! तारी आत्मवस्तुमां एक प्रभुत्वशक्ति छे. त्यां आ शक्ति अने शक्तिवान एवा भेदनुं लक्ष मटाडी अभेद एक त्रिकाळी शुद्ध चिन्मात्र वस्तुनुं लक्ष करतां तारी प्रभुत्वशक्ति अखंडित प्रताप सहित तत्काल प्रगट थाय छे. अहाहा...! ते द्रव्य-गुण-पर्याय त्रणेयमां व्यापे छे. अहाहा...! द्रव्यमां प्रभुत्व, गुणोमां प्रभुत्व अने पर्यायमां प्रभुत्व प्रगटे छे; अर्थात् तारी प्रभुत्वशक्ति क्रमे निर्मळ-निर्मळ एवी परिणमे छे के एनो प्रताप कोईथी निवारी शकातो नथी. जुओ, -

- आ देव-गुरु आदि पंच परमेष्ठी भगवंतो परद्रव्य होवाथी तारा आत्माना द्रव्य-गुण-पर्याय एकेयमां

व्यापता नथी,

-वळी देव-गुरु प्रत्येनो विनय-भक्ति आदिनो शुभराग-विकार ते य आत्माना द्रव्य-गुणमां व्यापतो नथी,

एक समयनी पर्यायमां ते व्यापे छे तोपण ते सर्व पर्यायोमां व्यापतो नथी. ज्यारे-

-धर्मी पुरुषने आ प्रभुत्व शक्ति द्रव्य-गुण-पर्याय त्रणेयमां व्यापे छे. अहाहा...! तेथी पोताना द्रव्य-गुणमां व्यापक एवी प्रभुत्वशक्ति वडे प्रभु! तारुं जीवन चैतन्यना अखंडित प्रतापथी स्वाधीन शोभायमान थाय ते ज जीवननी वास्तविक शोभा छे, उज्ज्वळता छे. आ सिवाय बीजा कोईथी तारी शोभा नथी.

अरे, अज्ञानी जीवो पोताने पामर मानीने बेठा छे. अमे तो गरीब छीए, संसारी-रागी छीए, अल्पज्ञ छीए, अमे शुं पुरुषार्थ करीए? आम अज्ञानीओ दीनता करी रह्या छे. तेमने अहीं कहे छे-भाई! तारुं स्वरूप अंदर अनंत प्रभुताथी विराजे छे. तारा एकेक गुणमां प्रभुत्व शक्ति भरी छे. अहाहा...! अनंत अनंत प्रभुताथी भरेलो हुं चैतन्य महाप्रभु छुं एम भान करी अंतर-लक्ष करतां ज पर्यायमां प्रभुता ऊछळे छे; साथे ज्ञान, दर्शन आदि अनंती शक्तिओ निर्मळ ऊछळे छे. आनुं नाम सम्यग्दर्शन अने धर्म छे.

तो ज्ञानी पण पोताने अल्पज्ञ अने पामर जाणे छे ते कई रीते छे? उत्तरः– सम्यग्द्रष्टिने द्रव्य-गुण-पर्याय त्रणेयमां प्रभुता व्यापी छे. तथापि पूर्ण दशा प्रगटी नथी, पूर्ण वीतरागता अने केवळज्ञान थयां नथी, तो जेटली वर्तमान दशा अधूरी छे तेटली त्यां पामरता अने अल्पज्ञता छे एम ज्ञानी यथार्थ जाणे छे. आ स्याद्वाद छे. पूर्ण परमात्मदशा प्रगटी नथी ते अपेक्षाए साधक पोतानी पर्यायने पामर जाणे छे. आ तेनो पर्याय-विवेक छे.

समकिती पोताना आत्माने तृण समान समजे छे-एम स्वामी कार्तिकेय अनुप्रेक्षामां आवे छे. त्यां अंतरंगमां प्रभुतानी प्रतीति सहित पर्यायना विवेकनी वात छे. एम के-कयां दिव्य केवळज्ञान? अने कयां मारी अल्पज्ञ दशा? अहाहा...! -आम विवेक करीने द्रव्यना आश्रये पूरण दशा प्रगट करवानी धर्मी पुरुष भावना भावे छे. भाई! जो एकली ज पामरता माने, अने अंतरंग प्रभुता न ओळखे तो पामरता दूर करी प्रभुता कयांथी लावे?

सम्यग्द्रष्टिने पोताना स्वरूपनो अनुभव थतां ज निज पूर्णानंद प्रभुनी अंतर-प्रतीति थाय छे, अने तेने अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद आवे छे. परंतु ज्यां सुधी पूरण चारित्रनी दशा-पूर्ण वीतरागता न थाय त्यां सुधी किंचित् राग आवे छे. ते रागने ते पामरता समजे छे. अहाहा...! चारित्रवंत महा मुनिवरनी आनंदनी रमणतानी दशा कयां? अने मारी वर्तमान वर्तती चोथा गुणस्थाननी दशा कयां?

श्रेणिक राजा क्षायिक समकिती हता; तीर्थंकर गोत्र बांध्युं छे. अत्यारे तेमने क्षायिक समकित छे; अने आगळ जतां केवळज्ञान प्रगट करशे. तेओ हमणां जाणे छे के अमारी वर्तमान दशा पामर छे. अहा! कयां चारित्रवंत महा मुनिवरोनी दशा? कयां केवळज्ञाननी दशा? अने कयां अमारी वर्तमान अल्पज्ञ दशा? आवो साधकदशामां धर्मीने पर्यायनो विवेक होय छे.

धवलमां एवो पाठ छे के-स्वभावना आश्रये मति-श्रुतज्ञाननी जे वर्तमान दशा प्रगट थई छे ते केवळज्ञानने बोलावे छे. एटले शुं? के वर्तमान सम्यक्ज्ञाननी दशा केवळज्ञानना स्वरूपने जाणे-ओळखे छे अने ते ज वधती-वधती