४८ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११ केवळज्ञानरूप थई जशे. अहो! संतोए शुं कमाल काम कर्यां छे! एकवार सांभळ, नाथ! तारा द्रव्य-गुण-पर्यायनुं संरक्षण अने संवर्धन करनार तुं पोते ज छो, क्षेमनो करनार तुं पोते तारो नाथ छो.
पति पत्नीनो नाथ कहेवाय छे, केमके पत्नी पासे जे संयोग छे तेनी ते रक्षा करे छे, अने जे (कपडां, दागीना वगेरे) नथी ते मेळवी आपे छे. तेम जे ज्ञान-श्रद्धान-आनंदनी निर्मळ पर्याय प्रगट थई तेनी रक्षा करे अने अनंतकाळमां जे केवळज्ञान नथी मळ्युं ते मेळवी आपे-एवो क्षेमनो करनारो तुं पोते ज तारो नाथ छो. तारी रक्षा करनार बीजो कोई प्रभु छे एम छे नहि.
अहाहा...! मतिज्ञान केवळज्ञानने कहे छे-आव रे केवळज्ञान आव! अहाहा...! सम्यग्द्रष्टि-धर्मी विचारे छे -अहो! धन्य आ अवतार! मारी ऋद्धिनुं प्रभुत्व मारी पर्यायमां प्रगट थयुं छे, पण पूर्ण दशानी प्रगटता थवी हजी बाकी छे. द्रव्य अने गुण तो पूर्ण छे, पण जेवो-केवळज्ञान, केवळदर्शन, अनंत आनंद, अनंत वीर्य, अनंत प्रभुता आदि पूर्ण वैभव छे ते सघळो अहाहा...! मारी पर्यायमां शीध्र प्रगटो! ल्यो, आम मतिज्ञान पोकारे छे. अहा! धर्मीने -सम्यग्द्रष्टिने अपूर्णता रहे (किंचित् पामरता रहे) तेनुं पोसाण नथी. समजाय छे कांई...?
आत्मामां षट्कारकरूप छ शक्तिओ छे. कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान, अधिकरण -एम आ छ शक्तिओ स्वाधीनपणे शोभायमान छे; केमके तेओ पोताना प्रभुत्वमय छे अर्थात् तेमां प्रभुत्व गुण व्यापक छे. जेथी तेओ पोतानुं कर्म (-कार्य) निपजाववामां पराधीन नथी, परनी अपेक्षारहित स्वाधीन छे. कर्ता स्वाधीन, कर्म स्वाधीन, करण स्वाधीन एम छए कारकशक्ति स्वाधीन छे. अहा! आ सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप कर्म नीपजे तेने जीव पोते षट्कारकपणे परिणमीने स्वाधीनपणे प्राप्त थाय छे, तेमां राग के निमित्त-परवस्तुनी अपेक्षा नथी. नियमसारनी बीजी गाथामां (टीकामां) कह्युं छे के निश्चय रत्नत्रय परम निरपेक्ष छे, व्यवहार रत्नत्रयना विकल्पनी, पर निमित्तनी के भेद-विकल्पनी -कोईनी तेने अपेक्षा नथी. आवुं प्रभुताथी भरेलुं वस्तु तत्त्व स्वाधीन छे भाई! लोकमां जेम राजा स्वाधीन शोभायमान होय छे ने! तेम वस्तुतत्त्व स्वाधीन शोभायमान छे. समयसार गाथा १७- १८मां आत्माने चैतन्य राजा कह्यो छे. अहाहा...! राजा एटले शुं? ‘राजते शोभते इति राजा’ - जे अखंडित प्रतापथी स्वाधीन शोभे छे ते राजा छे. अहाहा...! आ चैतन्यराजा पोतानी अनंत गुणपर्यायथी अनिवारित जेनुं तेज छे एवा प्रतापथी स्वाधीन शोभायमान छे. समजाणुं कांई...?
जुओ, पंडित दीपचंदजी साधर्मी गृहस्थ हता. तेमणे ‘पंचसंग्रह’ ग्रंथ लख्यो छे. तेमां शृंगार आदि आठ रसनुं बहु तात्त्विकरीते अनोखुं वर्णन कर्युं छे. त्यां ते लखे छे-आनंदरसकंद प्रभु आत्मानी अनंतशक्तिनुं परिणमन थाय ते शृंगाररस छे. आ व्यवहार रत्नत्रय ते आत्मानो शृंगार नथी, ए तो राग नाम दुःख छे. त्यां तेओ लखे छे-आत्मा गृहस्थ छे, ब्रह्मचारी छे इत्यादि विस्मयकारी वातो त्यां दर्शावी छे.
अहाहा...! एक समयनी दर्शननी पर्याय लोकालोकने भेद पाडया विना सामान्य देखे, ते ज समये ज्ञाननी पर्याय आ जीव छे, आ गुण छे, आ पर्याय छे, आ पर्यायना अविभाग प्रतिच्छेद छे-एम भेद पाडीने जाणी ले छे. अहाहा...! दर्शननी पर्याय बधुं अभेद सामान्यरूपे देखे, ने ज्ञाननी पर्याय ते ज काळे स्व-पर बधाने भिन्नभिन्नपणे भेद पाडीने जाणे. अहो! आवो चमत्कारी अद्भुत रस आत्मामां छे. आम अद्भुत रस, शृंगाररस वगेरे आत्मामां एकीसाथे स्वतंत्र शोभे छे ते आत्मानुं प्रभुत्व छे.
आत्मा द्रव्य-वस्तु छे. तेमां संख्याए एक, बे, त्रण-एम अनंत शक्ति छे. द्रव्य एक अने शक्ति अनंत. तेमां एनी प्रभुत्वशक्ति अखंडित प्रतापमय स्वातंत्र्यथी शोभायमान छे. आ प्रभुत्वशक्ति द्रव्य-गुण-पर्यायमां-त्रणेमां व्यापे छे, पण ते पर्यायना काळने आघोपाछो करवा समर्थ नथी. नियत क्रममां जे समये जे पर्याय थवानी होय ते ज थाय छे.
प्रश्नः– दरेक पर्याय थवानी होय ते नियत क्रममां क्रमबद्ध थायतो पुरुषार्थ करवानो कयां रह्यो? उत्तरः– द्रव्यमां जे समये जे पर्याय प्रगट थवानी होय ते समये ते ज प्रगट थाय एवो यथार्थ निर्णय करनारनी द्रष्टि पोताना त्रिकाळी शुद्ध चैतन्यद्रव्य उपर ज होय छे. द्रष्टि त्रिकाळी द्रव्य उपर जाय त्यारे ज क्रमबद्ध पर्यायनो साचो निर्णय थाय छे. आ निर्णयमां द्रव्यद्रष्टिनो अनंतो सम्यक् पुरुषार्थ छे; केमके द्रव्यद्रष्टि ते ज सम्यक् द्रष्टि छे. प्रत्येक समये द्रव्यमां जे पर्याय प्रगट थाय छे ते तेनी जन्मक्षण छे एम प्रवचनसारमां (गाथा १०२ मां) पाठ छे. एटले