Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 3969 of 4199

 

प०ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११ छे ते बुद्धिपूर्वकनो राग छे, अने ते ज वखते (छट्ठे गुणस्थाने) ख्यालमां न आवे एवो राग छे ते अबुद्धिपूर्वकनो राग छे. सातमा गुणस्थाने एकलो अबुद्धिपूर्वकनो राग होय छे, आम यथार्थ समजवुं.

जुओ, समयसार गाथा ३०८ थी ३११नी टीकामां आचार्य अमृतचंद्रदेवे क्रमबद्ध विषे स्पष्ट वात करी छे. त्यां कह्युं छे-“प्रथम तो जीव क्रमबद्ध एवा पोताना परिणामोथी उपजतो थको जीव ज छे, अजीव नथी; एवी रीते अजीव पण क्रमबद्ध पोताना परिणामोथी ऊपजतुं थकुं अजीव ज छे, जीव नथी.” मूळ संस्कृत टीकामां ‘क्रमनियमित’ शब्द पडयो छे. एटले द्रव्यमां प्रगट थता प्रत्येक परिणाम क्रमथी निश्चित तेना क्रममां थवाना काळे ज प्रगट थाय छे, आघा-पाछा थता नथी. भाई! आ तो त्रिलोकीनाथ सर्वज्ञदेवनी वाणीमां झरेलुं परमामृत छे. एना रसपान विना बधुं थोथां छे. शुं थाय? अत्यारे तो बधा पंडितोनुं भणतर ज निमित्ताघीन बुद्धिवाळुं छे, एम के निमित्तथी थाय; पण परथी परनुं परिणमन न थाय एवो अभ्यास ज नथी, पछी स्वानुभव तो कयांथी थाय?

आ वात सांभळीने पं. देवकीनंदन बोलेला के-संतो आगमचक्षु होय छे ए वात हवे बराबर समजाय छे. भाई! गमे तेम करीने जीवनमां आ वात समजवा जेवी छे हों. अहाहा...! अंतर्मुहूर्तमां केवळज्ञान प्रगट करवानी तारी ताकात छे. माटे आ मने न समजाय एवुं शल्य छोडीने अभ्यास कर, जरूर तने स्वानुभव प्रगट थशे. समयसारना एक कळशमां कह्युं छे के-एक चैतन्यमात्र वस्तुने पोते निश्चळ लीन थई देख; एवो छ महिना अभ्यास कर अने जो (-तपास) के एम करवाथी पोताना हृदय-सरोवरमां जेनुं तेज-प्रताप-प्रकाश पुद्गलथी भिन्न छे एवा आत्मानी प्राप्ति नथी थती के थाय छे? भाई! प्राप्ति थाय ज एवी आ वात छे. पोते जागतो ऊभो छे ते कयां जाय? प्राप्त थाय ज. अहीं छ महिनानो अभ्यास कह्यो तेथी एम न समजवुं के एटलो वखत लागे. तेनुं थवुं तो अंतर्मुहूर्तमां ज छे, परंतु कोई मंद रुचिवाळो होय तो तेना माटे कह्युं छे के-छ महिना आ तत्त्वज्ञाननो स्वलक्षपूर्वक अभ्यास कर, तने अनुभव थशे ज थशे. अंतरनी रुचि वडे वास्तविक तत्त्वज्ञाननो अभ्यास करे तेने आत्म-अनुभूति थाय ज एम वात छे. पण अरे! रळवा-कमावा पाछळ मजूरनी जेम आखी जिंदगी वेडफी नाखे! नोकरीवाळा तो पप वर्षनी उंमरे निवृत्त-छूटा थाय, पण आ तो धंधानी ममता आडे ८०-९० वर्षनी उंमर थाय छतां त्यांथी निवृत्त थई आवुं तत्त्व समजवा फुरसद ना ले तो शुं थाय? भाई! जिंदगी हारी जईश हों. मरीने कयांय संसार-समुद्रमां खोवाई जईश.

समयसारनी पमी गाथामां आचार्यदेवे कह्युं के- ‘ते एकत्व-विभक्त आत्माने हुं आत्माना निज वैभव वडे देखाडुं छुं; जो हुं देखाडुं तो प्रमाण (स्वीकार) करवुं.’ ‘प्रमाण करवुं’ एटले शुं? के जे एकत्व-विभक्त आत्माने दर्शावुं छुं तेने स्वयमेव पोताना अनुभव-प्रत्यक्षथी परीक्षा करी प्रमाण करवुं. एकली हा पाड एम नहि, पण हे शिष्य! पोताना स्वसंवेदन-प्रत्यक्षथी प्रमाण कर-एम कहेवुं छे. वस्तु पोते आत्मा स्वानुभव-प्रत्यक्ष न थाय एम वात ज नथी. अहो! दिगंबर संतोनी आ रामबाण वाणी छे. समजाणुं कांई...?

अरे भाई! जीवोनी दया पाळो, दान आपो, ने भक्ति करो तो धर्म थाय एवी वात तो लौकिकमां सामान्य लोको पण करे छे. घणा वर्षो पहेलां अमारा गाममां एवो रिवाज हतो के जैनोनां पर्युषण आवे एटले घांची, कुंभार वगेरे लोको एक मास सुधी पोतानो धंधो बंध राखता, निंभाडा, घाणी वगेरे चालु न राखता. पण एथी शुं? ए बधाथी कांई धर्म थोडो थाय? राग मंद होय तो पुण्यबंध थाय, बस. धर्म वस्तु तो कोई अलौकिक चीज छे बापु! जगतना प्राणीओने धर्मना स्वरूपनी खबर नथी. स्वस्वरूपमां सन्मुख थई त्यां ज रमवुं, तेमां ज लीन- स्थिर थवुं ते वीतरागी जैनधर्म छे. आवी दशा थतां धर्मीने दया, दाननो राग आवे छे, पण तेने ते जाणवालायक छे बस. तेनी द्रष्टि तो निरंतर अखंड एक नित्य प्रतापवंत निज ज्ञायक पर ज होय छे; अने त्यां ज स्थित थवा ते प्रवृत्त थाय छे. ल्यो, आवो धर्म!

जुओ, निमित्त-उपादान निश्चय-व्यवहार, ने क्रमबद्ध ए पांच वात अहींथी खास बहार आवी छे ते खास समजवा जेवी छे. केटलाक समज्या विना ज तेनो विरोध करे छे. अहींनी वात सांभळी पं. देवकीनंदन बोल्या हता के-अहो! क्रमबद्धनी आवी वात अमे कयांय सांभळी नथी. अमारा बधा पंडितोनुं भणतर ज निमित्ताधीन द्रष्टिवाळुं छे. प्रत्येक द्रव्यनी पर्याय स्वतंत्रपणे पोताना उपादानथी प्रगट थाय छे एवी वात अमारा अभ्यासमां कदी आवी नथी; अनुभव थवानी वात तो कयांय दूर रही गई.

अरे भाई! भगवाने आ विश्वमां छ द्रव्यो जोयां छे. तेमां एक जीव अने बाकीनां पांच द्रव्यो-पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश, अने काळ-ते अजीव छे. आ सर्व जीव-अजीव द्रव्यो प्रतिसमय पोतपोताना