क्रमबद्ध परिणामोथी निरंतर उपजे छे. कोई द्रव्य कोई अन्यद्रव्यना परिणामने उपजावे एवी वस्तुस्थिति ज नथी. गाथा ३०८ थी ३११ मां-टीकामां आ वात आचार्यदेवे प्रसिद्ध करी छे. आवी वस्तुव्यवस्था स्वीकारीने जे अतंर्मुख द्रष्टि करे छे तेने क्रमबद्धनो साचो निर्णय थाय छे अने तेने क्रमबद्ध निर्मळ आनंद आदि पर्यायनी धारा शरू थाय छे. बाकी तो जगतना जीवो बिचारा दुःखमां पीलाय छे. अरे! घाणीमां तल पीलाय तेम रागद्वेषनी घाणीमां तेओ पीलाय छे. अहा! अनंत प्रभुतामय पोताना प्रभुने-आत्माने ओळख्या विना बिचारा शुं करे? कयां जाय? (दुःखमां डूबी मरे छे). कोईक विरल जीव अंतर स्वभाव-सन्मुखनो पुरुषार्थ करे ते अल्पकाळमां केवळज्ञान लईने मोक्ष प्राप्त करे छे. सज्झायमां आवे छे ने के-
मोहतणा रे रणिया भमे, जाग जाग मतिवंत रे;
लूंटे जगतना जंत रे, विरला कोई उगरंत रे..
अरे प्रभु! आ मोह-राग-द्वेषादि रणिया तारा माथे भमे छे ने तुं पोताना सहजानंदी स्वरूपने भूली प्रमादी थई सूतो छे! जाग रे जाग नाथ! आ जगतना प्राणीओ तने लूंटे छे. आ बैरां-छोकरां वगेरे कुटुंबीजनो पोतानी आजीविका हेतु तारा आनंदने लूंटे छे. नियमसारमां आवे छे के आ स्त्री-पुत्र आदि परिजन पोतानी आजीविका माटे तने धूताराओनी टोळी मळी छे. हवे आवी स्थितिमां कोई विरल जीव मोहमुक्त थई पोताना त्रिकाळी शुद्ध सहजानंद-ज्ञानानंद स्वरूपनी संभाळ करे छे ते उगरी जाय छे अर्थात् पोतानुं कल्याण करी ले छे.
अहा! अंदर पोते चैतन्य महाप्रभु विराजे छे तेने भूलीने तुं बहार फांफां मारे छे? बहारमां कयां तारां प्रभुता ने आनंद छे? अहा! अनंत गुणनी प्रभुताना सत्त्वथी भरेलो तुं प्रभु छो. अहा! आवा निज स्वरूपनो महिमा लावी अंतर्मुख था. तेम करतां ज अखंडित तेज वडे तारो आत्मा प्रभुताथी पर्यायमां शोभी उठशे. आ सिवाय बहारमां कयांयथी तारी प्रभुता प्रगट थाय एम छे नहि. समजाणुं कांई...! ल्यो, -
आ प्रमाणे अहीं प्रभुत्वशक्तिनुं वर्णन पूरुं थयुं. -
‘सर्व भावोमां व्यापक एवा एक भावरूप विभुत्वशक्ति. (जेम के, ज्ञानरूपी एक भाव सर्व भावोमां व्यापे छे.)’
आ शक्तिनो अधिकार चाले छे. तेमां अहीं आ आठमी विभुत्वशक्तिनुं वर्णन छे. अहाहा...! आत्मा शुद्ध चैतन्यमय पदार्थ छे ते कर्म अने शरीरथी सदाय भिन्न चीज छे; वळी अंदर जे पुण्य-पापना विकल्पो उत्पन्न थाय छे तेनाथी पण आत्मा वास्तवमां भिन्न वस्तु छे, केमके ते विकल्पो त्रिकाळी चैतन्यवस्तुमां प्रसरता नथी. परंतु पोतानी जे अनंत शक्तिओ छे तेनाथी आत्मा अभिन्न छे, एक छे; केमके सर्व अनंत शक्तिओ पूरी आत्मवस्तुमां अभेदपणे व्यापक छे. अहाहा...! आ शक्तिओमांथी अहीं विभुत्वशक्तिनुं वर्णन कर्युं छे.
केवी छे विभुत्वशक्ति! तो कहे छे-‘सर्व भावोमां व्यापक एवा एक भावरूप विभुत्वशक्ति.’ भाव एटले शुं? के आत्मवस्तुमां जे ज्ञान, दर्शन, चिति, जीवत्व, प्रभुत्व आदि शक्तिओ छे तेने अहीं भाव कहेल छे. भाव शब्द चार अर्थमां कहेवाय छे.
१. द्रव्यने भाव कहे छे, २. गुणने भाव कहे छे, ३. पर्यायने भाव कहे छे, अने ४. रागने-विकारी पर्यायने पण भाव कहे छे. तेमां अहीं त्रिकाळी शक्तिने भाव कहेल छे. मतलब के सर्व अनंत शक्तिओमां व्यापक एवा एक भावरूप विभुत्वशक्ति छे. समजाणुं कांई...?
अहाहा...! आत्मद्रव्यमां जे विभुत्वशक्ति छे ते द्रव्यना सर्व भावोमां व्यापक एवा एक भावस्वरूप छे. अर्थात् द्रव्यना सर्व अनंत भावोमां व्यापक छतां विभुत्वशक्ति अनंत भावरूप थई जती नथी, सदा ते एक भावरूप ज रहे