प२ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११ छे. अहा! एकपणे रहीने अनंत गुणस्वभावोमां व्यापे एवुं आत्मानुं विभुत्व छे. अहीं ज्ञाननुं द्रष्टांत आप्युं छे ने! के ज्ञानरूपी एक भाव सर्व भावोमां व्यापे छे. तेवी रीते एक भावरूप विभुत्व सर्व भावोमां ने आत्मद्रव्यमां व्यापे छे. आ रीते विभुत्व स्वभाव वडे आत्मा विभु अर्थात् सर्वव्यापक छे, ने आत्माना प्रत्येक गुण पण विभु अर्थात् सर्वव्यापक छे.
अन्यमतमां आत्मा आखा विश्वमां सर्वव्यापक छे एम मानवामां आवे छे. तेओ आकाशमां (लोकालोकमां) सर्वत्र भगवाननो-एक ब्रह्मनो वास छे एम माने छे, पण भाई! एवी आत्मवस्तु नथी. अहीं तो पोताना सर्व- अनंता गुण-पर्यायोमां व्यापक एवो आत्मा विभु अर्थात् सर्वव्यापक छे एम वात छे. भाई! प्रत्येक आत्मवस्तु पोताना स्वरूपने छोडीने पोताना असंख्यप्रदेशी क्षेत्रनी बहार कयांय (अन्य द्रव्यमां) व्यापतो नथी. अहाहा...! आवो बहारना सर्व परद्रव्योथी भिन्न अने अंदर सर्व अनंत गुणपर्यायोमां व्यापक एवो आत्मा विभु स्वभावी छे.
तो स्तुतिमां-भक्तामर स्तोत्र आदिमां-भगवानने विभु कह्या छे ने? हे नाथ! आप विभु छो-एम कह्युं छे ने?
समाधानः– हा, कह्या छे; पण ए तो आत्मानी विभुत्वशक्तिनी अपेक्षाए कह्या छे. भगवान कांई लोकालोकमां व्यापी रह्या छे अने माटे तेओ विभु छे एम नथी. ए तो विभुत्व स्वभावनी प्रगटता थतां पोताना सर्व अनंता गुण-पर्यायोमां भगवान व्यापक छे ए अपेक्षाए भगवान आप विभु छो. एम कह्युं छे. भाई! लोकालोकमां व्यापे एवुं कांई आत्मानुं विभुत्व नथी, पण पोतामां रहीने लोकालोकने सहज जाणी ले एवुं आत्मानुं विभुत्व छे. अहाहा...! केवळज्ञान पोतामां रहीने (प्रसरीने) आखा लोकालोकने जाणी ले तेवुं एनुं विभुत्व छे. आवी वात छे. समजाणुं कांई...?
अहो! आ विभुत्वशक्ति तो अजब छे. विभुत्व स्वभाव वडे जेम आत्मा विभु छे तेम तेना अनंता गुण- प्रत्येक विभु छे. ज्ञान विभु, दर्शन विभु, चारित्र विभु-एम दरेक गुण विभु छे. गजब छे ने! जेम अस्तिगुणथी बधा (अनंता गुण) अस्तिरूप छे तेम विभुत्व गुणथी बधा विभुस्वरूप छे. जेम अस्तित्व गुण व्यापीने बधाने अस्तिरूप करे छे तेम विभुत्व गुण व्यापीने बधाने विभुत्व अर्पे छे. अहो! आवी पोतानी विभुत्वशक्तिने जाणी, आ शक्ति अने आ शक्तिवान द्रव्य एवा भेदनुं लक्ष छोडी अभेद अखंड एक शक्तिवान द्रव्य पर द्रष्टि करवी ते सम्यग्दर्शन छे. आ धर्म प्रगट करवानी रीत छे. भाई! शक्तिओ नो भेद छे ते जाणवा माटे छे, पण सम्यग्दर्शन प्रगट करवा माटे तो भेदनुं लक्ष मटाडी अभेदनी अंतर्द्रष्टि करवी ए ज साधन छे.
जुओ, द्रव्यमां-आत्मवस्तुमां सर्व शक्तिओ अक्रम अर्थात् एक साथे रहेली छे, अने पर्यायो क्रमसर एक पछी एक सुनिश्चित थाय छे. अहा! ज्ञाननी पर्याय क्रमबद्ध एक पछी एक थाय छे तेम दरेक गुणनी पर्याय क्रमबद्ध एक पछी एक थाय छे. हवे केटलाक आमां तर्क करे छे के-“केवळज्ञाननी अपेक्षाए तो दरेक पर्याय नियत क्रमबद्ध छे ए वात बराबर छे, परंतु श्रुतज्ञान अल्प छे, माटे श्रुतज्ञाननी अपेक्षाए पर्याय क्रमबद्ध थाय ए वात बराबर नथी. बाह्य साधनो वडे जेवो पुरुषार्थ करे तेवी पर्याय थाय, क्रमबद्ध नहि.” खानिया तत्त्वचर्चामां आवो तर्क थयेलो छे, तेनुं समाधान पंडित श्री फूलचंदजीए बराबर करेलुं छे. अरे भाई! शक्ति अने शक्तिवान द्रव्य एवा भेदनुं लक्ष मटाडी अभेद एक त्रिकाळी ज्ञायकस्वभाव सन्मुख थाय त्यारे सम्यग्दर्शन प्रगट थाय छे अने त्यारे साथे ज भावश्रुतज्ञान प्रगट थाय छे. आ भावश्रुतज्ञान केवळज्ञानने अनुसरे छे तेथी श्रुतज्ञानमां पण सर्व पर्यायो क्रमबद्ध थाय छे एवो निर्णय होय छे. अहा! केवळज्ञानमां जे वस्तुव्यवस्था भासी तेनाथी अन्य प्रकारे (विपरीत) (वस्तुव्यवस्था) श्रुतज्ञानमां भासे तो ते श्रुतज्ञान केवुं? ते श्रुतज्ञान नथी, ए तो मिथ्याज्ञान ज छे.
भाई! अमे तो अहीं वर्षोथी कहीए छीए के-प्रत्येक द्रव्यनी प्रतिसमय जे जे पर्याय थाय छे ते ते क्रमबद्ध- क्रमनियमित प्रगट थाय छे. प्रत्येक समये जे पर्याय थवायोग्य होय ते ज त्यां क्रमनियमित प्रगट थाय छे. तेमां कांई आघुंपाछुं के आडुंअवळुं थवानो सवाल ज नथी. भाई! आ तो भगवान केवळीनुं फरमान छे. जेम मोतीनी माळामां ज्यां ज्यां जे जे मोती छे ते त्यां त्यां (प्रकाशे) छे; तेने आघांपाछां करवा जाय तो माळा तूटी जशे. तेम दरेक द्रव्यनी प्रत्येक पर्याय त्रणे काळे जे थवानी छे ते ज प्रगट थाय छे, तेमां आघुंपाछुं करवा जाय तो पर्यायनो क्रम तूटी जशे अने अखंड द्रव्य सिद्ध नहि थाय. (अर्थात् मिथ्यात्व ज रहेशे).