अहा! आ शुकललेश्या जुदी चीज छे, ने शुक्लध्यान जुदी चीज छे, शुक्लध्यान तो भावलिंगी मुनिवरने श्रेणी चढे त्यारे सम्यग्दर्शनपूर्वक होय छे. ज्यारे शुक्ललेश्यारूप परिणाम तो अभविने पण थाय छे. बहु उजळा अति मंदकषायरूप परिणाम ते शुक्ललेश्या छे. शुक्ल लेश्यावाळो जीव छठ्ठा देवलोकमां जाय छे. नवमी ग्रैवेयक जनारा जीवने तो घणा उंचा शुक्ललेश्याना शुभभाव मंदकषायरूप होय छे. छठ्ठा देवलोकमां सम्यग्द्रष्टि पण जाय तो शुक्ललेश्याना तेने परिणाम होय छे; परंतु नवमी ग्रैवेयक जनारने तो अहा! एथीय अधिक केवा उंचा मंदकषायरूप शुक्ललेश्याना परिणाम होय छे! छतां आ भाव धर्म नथी, ए तो कषायनो ज अंश छे, आकुळतामय छे. ते धर्मरूप नहि ने धर्मनुं कारणेय नहि.
आ शक्तिनो अधिकार चाले छे. भगवान आत्मामां अनंत शक्तिओ छे. अहीं आचार्यदेवे ४७ शक्तिनुं अति सूक्ष्म अने अलौकिक वर्णन कर्युं छे. क्रमरूप परिणत अने अक्रमरूप प्रवर्तता अनंत धर्मोना समुदायने अहीं आत्मा कह्यो छे. एकली शक्तिओ पडी छे एम वात नथी; शक्तिओनो भंडार पर्यायमां खोली नाख्यो छे. हवे आवी अद्भुत मूळ चीज पोतानी समजता नथी ने लोको विरोध करे छे! पण आ भगवान केवळीनो परम सत्य मार्ग छे.
श्रीमद्ना एक पत्रमां आवे छे के-चोथा गुणस्थाने सम्यग्द्रष्टिने केवळज्ञान श्रद्धापणे प्रगट थयुं छे. एटले शुं? केवळज्ञान परिणमनरूपे पर्यायमां तो तेरमा गुणस्थाने प्रगट थशे. परंतु चोथा गुणस्थानवाळाने पोताना श्रद्धानमां केवळज्ञाननी प्रतीति थई छे तेथी तेने श्रद्धापणे केवळज्ञान थयुं छे एम कहीए छीए. शक्तिनुं अने शक्तिनी अंशरूप ने पूरणस्वरूप प्रगटतानुं समकितीने यथार्थ ज्ञान-श्रद्धान होय छे अने तेथी श्रद्धापणे समकितीने केवळज्ञान ने मोक्ष थयो छे एम कहेवामां आवे छे.
अरे, पोताना निधान पर नजर नाखे तो समजाय ने? अहा! ज्यां पोताना निधान पर नजर नाखे के तरत निर्मळ पर्याय प्रगट थाय छे. तेमां विकारनी तो गंधेय नथी. जे निर्मळ परिणाम प्रगटया ते भावरूप छे, ने तेमां विकारी भावनो अभाव छे. आनुं नाम अनेकान्त छे. शक्ति अंदर पडी छे ते स्वाभिमुख थतां ज अंदर खीली जाय छे. अहा! पोतानी परिणतिरूपी रमणी साथे रमतां-अंतर एकाग्र थईने रमणता करतां-ते निराकुल आनंदना भोग दे छे; अहा! आवुं छे आनंदनुं जन्मस्थान! आनुं नाम धर्म ने आ मोक्षनो मारग छे. बाकी बधां थोथां छे.
आ शक्तिना वर्णनमां बे वात मुख्यपणे समजवा जेवी कही छे.
(२) ते आत्मदर्शनमयी छे, परदर्शनमयी नथी.
आ प्रमाणे आ सर्वदर्शित्वशक्तिनुं वर्णन पूरुं थयुं.
‘समस्त विश्वना विशेष भावोने जाणवारूपे परिणमता एवा आत्मज्ञानमयी सर्वज्ञत्वशक्ति.’ ‘बधुं छे’ बस एटली ज वात दर्शनशक्तिमां हती. भेद पाडया विना सामान्यपणे आखुं विश्व, लोकालोक अस्तिरूपे छे एम दर्शनशक्तिमां देखवामां आवे छे. आ आत्मा छे, आ जड छे, आ सिद्ध छे, आ साधक छे, आ गुण छे, आ पर्याय छे-एवो भेद दर्शनशक्तिनो विषय नथी. विश्वना जे अनंता विशेष भावो छे ते बधायने विशेषपणे-भिन्न भिन्न जाणे एवी आत्मानी सर्वज्ञत्वशक्ति छे. जाणे एटलुं ज हों; एमां ठीक-अठीक करे ए सर्वज्ञत्वशक्तिनुं काम नथी. समजाणुं कांई...?
अध्यात्म पंचसंग्रहमां कह्युं छे के-एक समयमां सर्वने भेद पाडया विना अस्तित्वरूपे देखवुं ते सर्वदर्शित्व शक्तिनुं कार्य छे, अने ते ज समयमां सर्व द्रव्य-गुण-पर्यायने भिन्न भिन्न भेद पाडीने जाणवुं ते सर्वज्ञत्वशक्तिनुं कार्य छे. ते बन्ने पर्याय एक समयमां एकीसाथे छे. अहो! एक पर्याय एक ज समयमां सर्वने सामान्यपणे सत्तारूपे देखे अने बीजी पर्याय ते ज समयमां सर्वने विशेषपणे भेद पाडीने जाणे एवो आत्मामां कोई अद्भुतरस छे. त्यां नव रस वर्णव्या छे तेमां अद्भुतरसनुं आवुं अलौकिक वर्णन कर्युं छे.