६०ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११
अहो! भगवान आत्मा दिव्य चित्चमत्कार प्रभु छे. एना निर्णयमां अनंता केवळी-सिद्ध भगवंतो सहित सर्व लोकालोकना विशेष भावोनो निर्णय समाई जाय छे. अहा! आ सर्वदर्शित्व अने सर्वज्ञत्वशक्ति तो महा आश्चर्यकारी छे. अहा! सर्व लोकालोकना अनंता भावोने देखे-जाणे पण ते प्रति (ज्ञान-दर्शननो) उपयोग जोडवो पडे नहि, अने कयांय परनो आश्रय नहि. गजब वात छे प्रभु! चैतन्यस्वभावमय आत्मानो आ अद्भुत रस छे; अहा! जेमां वीतरागी वीरतानो वीररस ने अनाकुळ आनंदरूप शांतरस समाय छे-एवो आत्मानो आ अलौकिक अद्भुत रस छे.
सर्व लोकालोकने सत्तामात्र सामान्य देखवारूपे परिणमे छे ते सर्वदर्शित्वशक्ति छे, अने ते ज समयमां विश्वना समस्त विशेष भावोने भेद पाडीने जाणवारूप परिणमे ते सर्वज्ञत्वशक्ति छे. विशेष भावो शुं? विशेष भावोमां त्रिकाळी द्रव्यस्वभाव, गुणभाव, पर्यायभाव, एकेक पर्यायमां अनंत अविभाग प्रतिच्छेद, त्रणे काळना अनंता केवळी भगवंतो सहित सर्व अनंता द्रव्यो जाणवामां आवे छे. अहा! केवळी भगवान के जेमना ज्ञानमां लोकालोक जणाय-एवा अनंता केवळी भगवंतो केवळज्ञाननी एक पर्यायमां जणाय ते केवळज्ञाननी एक समयनी पर्यायनी ताकात केटली? निगोदिया जीवने अक्षरना अनंतमा भागे ज्ञाननो विकास छे. तेमां अनंत अविभाव प्रतिच्छेद होय छे. केवळज्ञाननी पर्यायनुं तो शुं कहेवुं? अहाहा...! केवळज्ञाननी एक पर्यायमां अनंत अनंत अविभाग प्रतिच्छेदो छे. तेने भिन्न भिन्न करीने भगवान केवळी जाणे एवुं केवळज्ञाननुं अपार अपरिमित अनंतु सामर्थ्य छे. अहा! प्रत्येक जीवमां आवी सर्वज्ञत्वशक्ति अंदर त्रिकाळ पडी छे. पण तेनी अंतर्मुख थई प्रतीति करे तो खबर पडे ने? स्तवनमां आवे छे केः-
निज सत्ताए शुद्ध, सौने पेखता हो लाल.
अहा! निगोदना जीव पण सत्ताए शुद्ध त्रिकाळ एक ज्ञायकभावस्वरूप छे एम हे भगवान! आपे केवळज्ञानमां जोयुं छे. भाई! आ पुण्य-पापना भाव थाय ते कांई आत्मा नथी. गंभीर वात छे प्रभु! निगोदना जीव पण स्वभावे शक्ति-अपेक्षा शुद्ध छे; पर्यायमां अशुद्धता छे, पण ए तो एक समयनी छे. एक समयनी पर्यायमां भूल छे, बाकी वस्तु तो अंदर त्रिकाळ शुद्ध पडी छे. अहा! आवी निज आत्मवस्तुमां एकाग्र थईने प्रवर्ते त्यां सर्वज्ञस्वभावनी प्रतीति प्रगट थाय छे, हुं सर्वज्ञस्वभावी छुं एम त्यारे निश्चय थाय छे, परंतु अल्पज्ञपणुं माने त्यां सुधी सर्वज्ञस्वभावनी प्रतीति नथी, अर्थात् त्यां सुधी तेने सर्वज्ञस्वभाव परिणत नथी. समजाय छे कांई...?
अहाहा...! पोते शुद्ध एक ज्ञानानंद-सच्चिदानंद प्रभु आत्मा छे एम निश्चय करी तेमां एकाग्र थतां मारो सर्वज्ञस्वभाव छे अर्थात् मारो केवळज्ञान एटले एकलो ज्ञानस्वभाव छे एम केवळज्ञानस्वभावनी श्रद्धा-प्रतीति प्रगट थाय छे. अहा! चोथे गुणस्थाने आम केवळज्ञानस्वभावनी जेने प्रतीति प्रगट थई छे तेने श्रद्धापणे केवळज्ञान प्रगट थयुं छे. ज्ञाननी केवळज्ञानरूप पूर्ण दशा तो तेरमा गुणस्थाने थाय छे, पण पोताना शुद्ध सर्वज्ञस्वभावनी प्रतीति थतां पर्यायमां शक्तिनुं परिणमन थयुं, शक्ति परिणत थई तेने त्यां श्रद्धापणे केवळज्ञान थयुं एम कहेवामां आवे छे. आवी वात! हवे आमां केटलाकने एम लागे के धर्मनो आ कई जातनो उपदेश?
अरे भाई! त्रिकाळी ध्रुव अखंड एक ज्ञायकस्वभावी आत्मद्रव्यनी द्रष्टि-प्रतीति करतां अज्ञानजन्य परनो महिमा उडी जाय छे; परिणाम स्वमां-स्वस्वरूपमां विश्रांत थाय छे, ठरे छे, ने आत्मामां दर्शन, ज्ञान, श्रद्धा, सुख, वीर्य, प्रभुत्व आदि अनंत शक्तिओनुं निर्मळ निर्मळ परिणमन एक साथे उछळे छे, प्रगटे छे. आ ज धर्म ने आ ज मोक्षमार्ग छे. साध्य आत्मानी आ रीते ज सिद्धि थाय छे. आ सिवाय व्रत पाळवां, दया पाळवी इत्यादि व्यवहार-राग कांई धर्म नथी, धर्मनुं साधनेय नथी, वास्तवमां तो ते राग होवाथी बंधनस्वरूप ज छे. अरे प्रभु! रागनी ममतानी आडमां तारां परम निधान तारी नजरमां आव्यां नहि!
अहीं कहे छे-आत्मामां विश्वना विशेष भावोने जाणवारूपे परिणत एवा आत्मज्ञानमयी सर्वज्ञत्वशक्ति छे. आमां एकली शक्तिनी वात नथी, पण परिणत थयेली आत्मज्ञानमयी शक्तिनी वात छे. अंदर सर्वज्ञत्वशक्ति पडी छे तेनी परिणति प्रगट थई छे ते आत्मज्ञानमयी छे. आत्माने एकने जाणवारूपे परिणत थाय एवी सर्वज्ञत्वशक्ति छे.
तो शुं ते (-परिणति) परने जाणती नथी? परने जाणती नथी एम कयां वात छे? परने जाणवा प्रति ते सावधान नथी, परमां ते तन्मय नथी. परमां तन्मय थईने परने जाणती नथी एम वात छे. तेथी परने जाणे छे एम कहीए ते असद्भूत व्यवहारनय छे. जेमां पर-लोकालोक