झळके छे एवी पोतानी पर्यायने पोतामां तन्मय थईने जाणे छे.
–जो कोई भाखे एम तो तेमां कहो शो दोष छे?
निश्चयथी केवळी भगवान आत्मस्वरूपने देखे छे, लोकालोकने नहि-एम जो कोइ कहे तो तेने शो दोष छे? अर्थात् कांई दोष नथी. अहीं निश्चय-व्यवहार संबंधी एम समजवुं के-जेमां स्वनी ज अपेक्षा होय ते निश्चय-कथन छे, अने जेमां परनी अपेक्षा आवे ते व्यवहार-कथन छे. माटे केवळी भगवान लोकालोकने-परने जाणे-देखे छे एम कहेवुं ते व्यवहार-कथन छे, अने भगवान केवळी स्वात्माने जाणे-देखे छे एम कहेवुं ते निश्चय छे.
–जो कोई भाखे एम तो तेमां कहो शो दोष छे?
व्यवहारथी केवळी भगवान लोकालोकने जाणे छे, आत्माने नहि-एम जो कोई कहे तो तेने शो दोष छे? अर्थात् कांई दोष नथी.
नियमसारना शुद्धोपयोग अधिकारना श्लोक २८पमां मुनिराज कहे छेः- “तीर्थनाथ खरेखर आखा लोकने जाणे छे अने तेओ एक, अनघ (निर्दोष), निज-सौख्यनिष्ठ (निज सुखमां लीन) स्वात्माने जाणता नथी-एम कोई मुनिवर व्यवहारमार्गथी कहे तो तेने दोष नथी.”
आम ज्ञानी-धर्मी पुरुष जे विवक्षाथी वात कहे ते विवक्षा यथार्थ समजवी जोईए. निश्चयथी केवळी भगवान स्वात्माने जाणे छे, लोकालोकने नहि; ने व्यवहारथी केवळी भगवान लोकालोकने जाणे छे, स्वात्माने नहि- आम आ बन्ने कथन विवक्षाथी बराबर छे.
पण आमां समजवुं शुं? भगवान लोकालोकने जाणता नथी एम वात नथी. परंतु भगवाननो उपयोग खरेखर अंतर्मुख स्वरूपप्रत्यक्ष अने स्वरूपनिष्ठ छे, ते लोकालोकमां तन्मय नथी, लोकालोकमां जोडाईने उपयुक्त नथी. परंतु निजानंदरसलीन छे. जो लोकालोकने, तेमां तन्मय थईने जाणे तो नर्कादि क्षेत्रना दुःखनुं वेदन तेने थवानुं बने. पण एम छे नहि. तेथी ज कह्युं के भगवान लोकालोकने व्यवहारथी जाणे छे. आनुं नाम ते सर्वज्ञत्वशक्ति पूर्णभावे परिणत थतां जे केवळज्ञान थयुं ते आत्मज्ञानमयी छे, परज्ञानमय नथी. गंभीर सूक्ष्म वात छे भाई!
अहा! आत्माना जीवत्व, प्रभुत्व आदि अनंतगुणोमां एक सर्वज्ञत्वशक्ति पण भेगी परिणमी रही छे. अरे, लोकोने पोताना अंतर निधाननी-चैतन्यनिधाननी खबर नथी. अहा! आ सर्वज्ञत्वशक्तिनी पूर्ण प्रगटता ते सर्वज्ञता अथवा केवळज्ञान छे. आ केवळज्ञान ते स्वलक्षे स्वरूपनी एकाग्रताथी खील्युं छे, कांई परना जगतना लक्षे खील्युं छे एम नथी. भाई! जगत छे माटे केवळज्ञान प्रगटयुं छे एम नथी. जगत तो त्रिकाळ अनादि-अनंत छे. जो तेने लईने ज्ञान थतुं होय तो अनादिथी ज प्रत्येक जीवने केवळज्ञान होवुं जोईए. पण एम छे नहि. ए तो जीव ज्यारे स्वमां एकाग्र थई, स्वद्रव्यने ज कारणपणे ग्रहीने स्वस्थित परिणमे छे त्यारे केवळज्ञान थाय छे, अने तेमां जगत आखुं ज्ञेयपणे झळके छे. त्यां शक्तिनुं परिणमन स्वाश्रित छे, पराश्रित नथी, आत्मज्ञानमय छे, परज्ञानमय नथी. अहा! सर्वज्ञता ए तो शक्तिनी स्व-आश्रये पूरण प्रसिद्धि छे. पण शुं थाय? ‘सर्वज्ञ’ सांभळतां ज अज्ञानीओने बहारना ज्ञेयो प्रति लक्ष जाय छे, पण जेमांथी सर्वज्ञदशा खीली ते सर्वज्ञत्वशक्ति-सर्वज्ञस्वभाव प्रत्ये लक्ष जतुं नथी. परंतु अंतर्लक्ष थया विना सर्वज्ञनी साची प्रतीति थती नथी.
अरे! पोताना स्वरूपना भान विना जीव अनंत काळथी रखडे छे. अहा! सातमी नरकमांय ते अनंत वार जन्म्यो-मर्यो छे. जुओ, ब्रह्मदत्त नामना चक्रवर्ती मरीने सातमी नरके गया छे, त्यां महादुःखना वेदनमां पडया छे. अहीं ७०० वर्षनुं आयुष्य भोगवीने, अहींना काल्पनिक सुखना फळमां तेत्रीस सागरना आयुनी स्थिति बांधी तेओ