६२ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११ सातमी नरकना घोर दुःखना क्षेत्रमां गया छे. दश क्रोडाक्रोडी पल्योपमनो एक सागर थाय छे, अने एक पल्योपम काळना असंख्यातमा भागमां असंख्यात अबज वर्ष समाय छे.
अहा! आत्मा अंदरमां पूरण आनंदनुं निधान प्रभु छे. तेनो अनादर करी भोगना सुखनो आदर अने स्वीकार कर्यो तो ते कल्पित सुखना फळमां सातमी नरकमां ३३ सागरोपमनी स्थितिमां ते जीव महान दुःख भोगवी रह्यो छे. भोगमां सुख नथी भाई! भोग तो रोग छे, दुःख छे, ने तेनुं फळ पण दुःख छे. आ (ब्रह्मदत्त) चक्रवर्तीने कुरुमति नामनी एक राणी हती. तेनी एक हजार देवो सेवा करता. तेनुं शरीर अति सुंदर रूपाळुं अने कोमळ हतुं. चक्रवर्तीए हीराना पलंगमां सूतां सूतां अंतिम समये “कुरुमति, कुरुमति” एवा आर्त पोकारो सहित प्राण छोडया, अने ते जीव सातमी नरके पडयो.
अहीं कोई एम तर्क करे के-आमां तो काकडीना चोरने कटार मारवा जेवी वात छे. पण एम नथी भाई! भोगमां (मिथ्यात्व सहित) अति तीव्र आसक्तिना महा अशुभ परिणाम तेने हता. पोताना सर्वज्ञस्वभावनो अनादर करी, तीव्र भोगासक्त बनी ते जीव सातमी नरकमां गयो छे. अहा! पोताना सर्वज्ञस्वभावी आत्मानो आश्रय लई परिणमे तो ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप निर्मळ परिणति सहित आनंदरूपी पुत्रनो जन्म थाय छे, अने विषयमां सुखबुद्धि करी, भोग-विषयना महा तीव्र परिणामनुं सेवन करे तो एना फळरूपे महादुःखना परिणाम उत्पन्न थईने जीव हलकी गतिमां उपजे छे.
अहाहा...! भगवान आत्मानो सर्वज्ञस्वभाव छे. अहाहा...! तेनुं अंतर्मुहूर्त ध्यान करे तो केवळज्ञाननी झळहळती ज्योत प्रगट थाय छे अने तेनी साथे अनंत अतीन्द्रिय आनंदनी उत्पत्ति थाय छे. दरेक समये ते ते पर्याय भिन्न भिन्न प्रगट थाय छे. बीजे समये एवी ने एवी पर्याय प्रगट थाय छे, पण एनी ए नहि. अहा! आवा निजनिधानने ओळख्या विना मिथ्यात्वनुं सेवन करी पारावार दुःखमय संसारमां जीव परिभ्रमे छे. अहा! एना दुःखने कोण कहे? ते वचन-अगोचर छे, कही न शकाय तेवुं छे.
जुओ, ‘होला’ नामना एक जातना पक्षी थाय छे. ते होला ‘सोडहम्, सोडहम्’ एवो अवाज करे छे. पण ‘सोडहम्’ एटले शुं एनुं एने कयां भान छे? ‘सोडहम्’ एटले हुं सिद्ध परमात्मा समान छुं. ‘सिद्ध समान सदा पद मेरो’-एम आवे छे ने? हा, ए पण शुभ विकल्प छे. तेमांथी ‘सो’ (-सिद्ध परमात्मा) काढी नाखीने ‘अहम्’ हुं छुं एम स्वलक्ष-अंतरलक्ष करीने स्वानुभव करतां परिणमन थाय छे त्यारे सर्वज्ञत्वशक्तिनी तेने प्रतीति थाय छे. अहाहा...! सर्वज्ञशक्तिथी भरेलो पोतानो पूरण परमात्मस्वभाव-तेनी अंतर-प्रतीति परिणमन थईने थाय तेनुं नाम सम्यग्दर्शन छे, अहा! ते काळे अनुभवनो रस-आनंदरस प्रगटयो पछी कोण पूछे के-कोण कर्ता, कोण करणी ने कोण करम?
अहीं सर्वज्ञशक्तिने ‘परिणत’ कहेल छे. पहेलां पण आत्माने ज्ञानमात्र कह्यो त्यां शिष्ये प्रश्न कर्यो हतो के- प्रभु! आत्माने ज्ञानमात्र कहेतां तो एकलुं ज्ञान आव्युं, तो एकान्त थई जशे के केम? त्यारे त्यां श्रीगुरुए समाधान कर्युं के-सांभळ, आत्माने ज्ञानमात्र कहेतां एकान्त थई जतुं नथी, पण अनेकान्त ज सिद्ध थाय छे. केमके ज्ञानमात्र भावमां अनंता धर्मो साथे आवी जाय छे. जेमके-ज्ञान अस्तिपणे छे, वस्तुपणे छे, प्रमेयपणे छे, ज्ञायकपणे छे-एम ज्ञानमात्र कहेतां तेमां अनंत धर्मो भेगा आवी जाय छे. माटे अहीं एकान्त थतुं नथी. ज्ञानमात्र भावनुं परिणमन थतां ज्ञानमात्र भावमां साथे अनंत शक्तिओ उछळे छे, भेगी सर्वज्ञत्वशक्ति पण परिणत थाय छे. अहा! ए परिणाममां परनुं ने रागनुं कर्तापणुं तो दूर रहो, हुं परने अने रागने जाणुं, ए मारां ज्ञेय छे एमेय नथी. झीणी वात छे प्रभु! पण आ परमार्थ सत्य वात छे. लोकोना सद्भाग्ये परम सत्य वात प्रसिद्धिमां आवी छे.
चोथा गुणस्थाने ज्ञानमां स्वज्ञेय-त्रिकाळी स्वद्रव्य-जाणवामां आव्युं त्यां सर्वज्ञत्वशक्तिनी प्रतीति प्रगट थाय छे, अने त्यारे समकितीने श्रद्धापणे केवळज्ञान प्रगट थयुं एम कहेवाय छे. जो के साक्षात् केवळज्ञाननी पर्याय तो तेरमा गुणस्थाने प्रगट थशे, परंतु समकितीने चोथे गुणस्थाने शक्तिनुं परिणमन थतां, अर्थात् सर्वज्ञत्वशक्ति परिणत थतां, श्रद्धानमां केवळज्ञानस्वभाव अने केवळज्ञाननी प्रतीति थई गई छे, तेथी तेने वर्तमान मति- श्रुतज्ञानपूर्वक श्रद्धारूपे केवळज्ञान प्रगट थयुं छे एम कहीए छीए. पहेलां केवळज्ञानने मान्युं न हतुं, हवे केवळज्ञाननो अंतरमां स्वीकार थतां केवळज्ञानने मान्युं. आनुं नाम ते मति-श्रुतज्ञान केवळज्ञानने बोलावे छे. धवल सिद्धांत शास्त्रमां पाठ छे ने के मति-श्रुतज्ञान केवळज्ञानने बोलावे छे. मतलब के मति-श्रुतज्ञानमां केवळज्ञाननो निश्चय थयो छे अने ते ज्ञान वधतुं-वधतुं पूर्ण केवळज्ञान