Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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१०-सर्वज्ञत्वशक्तिः ६३

थई जशे. आनुं नाम सर्वज्ञनी-अरहंतनी वास्तविक प्रतीति छे.

प्रवचनसार, गाथा ८०मां कह्युं छेः-
जे जाणतो अर्हंतने गुण, द्रव्य ने पर्ययपणे;
ते जीव जाणे आत्मने, तसु मोह पामे लय खरे.

जे जीव अर्हंतने द्रव्यपणे, गुणपणे अने पर्यायपणे जाणे छे, ते (पोताना) आत्माने जाणे छे अने तेनो मोह अवश्य लय पामे छे.

आमां शुं कीधुं? के अर्हंतभगवानना द्रव्य-गुण ने केवळज्ञाननी पर्यायने प्रथम विकल्प द्वारा जाणीने पछी पोताना आत्मा साथे तेनुं मिलान करे छे; ओहो! वर्तमानमां मने भले केवळज्ञान प्रगटरूप नथी, पण द्रव्यरूपथी मारो केवळज्ञानस्वभाव छे. अहाहा...! आम विचारी सर्वज्ञस्वभावी निज आत्मद्रव्यने कारणपणे ग्रहण करीने तेनी सन्मुख थई परिणमे छे त्यां अवश्य तेनो मोह नाश पामी जाय छे, अर्थात् तेने पर्यायमां स्वस्वरूपनी प्रतीतिरूप सम्यग्दर्शन प्रगट थाय छे. अहा! ज्यां सम्यग्दर्शन थयुं त्यां आ निश्चय थयो के हुं तो एकलो ज्ञानस्वरूप शक्तिए पूर्ण वस्तु छुं. अहाहा...! केवळज्ञान-शक्ति मारामां त्रिकाळ पडी छे ते अंतःपुरुषार्थ वडे अल्पकाळमां ज पूरण प्रगट थई जाशे. ल्यो, आवी वात! पहेलां आम प्रतीति नहोती तो श्रद्धापणे केवळज्ञान न होतुं, पण ज्यां अंदर त्रिकाळी स्वद्रव्यने ज्ञेय बनाव्युं तो सर्वज्ञस्वभावनी प्रतीति थई, श्रद्धानमां केवळज्ञान प्रगट थयुं अने पर्यायमां अल्पकाळमां ज साक्षात् केवळज्ञान प्रगट थवानी तैयारी थई गई. समजाणुं कांई...?

हवे आवी सार-सार वात छोडीने लोको बहारनी तकरारमां पडया छे. शुभभावथी धर्म थाय, पुण्य धर्मनुं साधन छे वगेरे खोटी मान्यतामां तेओ राचे छे. पण भाई, शुभभाव तारा स्वरूपमां छे नहि, तारा द्रव्य-गुणमां नथी, अने शक्तिनुं जे निर्मळ परिणमन थाय तेमांय नथी. स्वरूप लक्षे सम्यग्दर्शननुं परिणमन थाय तेमांय कयांय शुभभाव छे नहि. हा, एटलुं छे के सम्यग्दर्शननी साथे सर्वज्ञशक्ति परिणत थतां जे ज्ञाननी दशा प्रगट थई ते ज्ञान, ते काळे जेवो जेवो राग छे तेने जाणे छे बस. ते ज्ञान ते काळे स्वाश्रित प्रगट थयुं छे, कांई रागने लईने प्रगट थयुं छे एम नथी. अहा! शक्तिनुं परिणमन एकलुं आत्मज्ञानमयी छे, रागमयी के परज्ञानमयी नथी.

ज्ञानीने राग आवे छे; राग जे होय तेने ते काळे जाणेलो प्रयोजनवान छे. १२मी गाथामां ‘तदात्वे’ शब्द पडयो छे. ज्ञानी-धर्मी पुरुषने राग आवे छे तेने ते काळे जाणेलो प्रयोजनवान छे, एटले के स्वपरप्रकाशी ज्ञाननी पर्याय सहज पोताना सामर्थ्यथी ज ते काळे प्रगट थाय छे, रागने लईने रागनुं ज्ञान थाय छे एम नथी. रागनो तो ज्ञानमां अभाव छे भाई! खरेखर तो ज्ञान पोतानी परिणतिने जाणे छे, रागने ज्ञान जाणे छे एम कहीए ते व्यवहार छे. ज्ञानीने ज्ञाननी पर्याय अल्पज्ञरूप छे, अने ते काळे तेने पर्यायमां राग पण छे, तो ज्ञान रागने जाणे छे एम कहेवुं ते व्यवहार छे, निश्चयथी तो पोते पोताने-पोतानी परिणतिने ज जाणे छे.

निश्चयथी केवळी भगवान पोतानी परिणतिने जाणे छे, केमके ज्ञान, ज्ञाता अने ज्ञेय-बधुं आत्मा छे. आत्मा ज्ञाता अने परवस्तु ज्ञेय ए वस्तु निश्चयथी छे नहि. सर्वज्ञशक्तिनी स्वाश्रये सम्यग्ज्ञानरूप परिणति प्रगट थई तेमां पूर्ण स्वभाव अने पूर्ण पर्यायनी प्रतीति आवी ज गई छे; आनुं नाम आत्मज्ञानमयी सर्वज्ञशक्तिनी परिणति छे.

अहा! आ सर्वज्ञशक्तिमां घणी गंभीरता छे भाई! सर्व शक्तिओनुं परिणमन स्व-आश्रये पोताथी थाय छे तेथी अहीं एम कह्युं के-समस्त विश्वना विशेष भावोने जाणवारूपे परिणमता एवा आत्मज्ञानमयी सर्वज्ञत्वशक्ति छे. अहा! सर्वज्ञशक्ति जे त्रिकाळ छे ते सर्व भावोने जाणवारूपे वर्तमान परिणत थाय छे त्यां तेना परिणाम आत्मज्ञानमयी छे, परज्ञानमयी नथी. ‘खानिया तत्त्वचर्चा’मां आ संबंधी प्रश्न उठावी तर्क कर्यो छे के- सर्वज्ञशक्ति छे ते सर्वने जाणवानी अपेक्षा राखे छे माटे व्यवहारे सर्वज्ञ छे. पण आ वात बराबर नथी. वास्तवमां आत्मद्रव्यमां सर्वज्ञस्वभाव-सर्वज्ञशक्ति सहज ज ध्रुवपणे त्रिकाळ छे; अहा! आवी शक्तिनो धरनार जे भगवान आत्मा तेनी सन्मुख थई स्व-आश्रये परिणमवाथी स्वरूपना श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन प्रगट थाय छे; भेगी अनंत शक्ति सहित सर्वज्ञशक्ति पण निर्मळ परिणत थाय छे तो श्रद्धापणे केवळज्ञान प्रगट थयुं एम कहेवामां आवे छे. साक्षात् परिणमनरूप केवळज्ञान थयुं एम नहि, सर्वज्ञशक्तिनी प्रतीति थई तो श्रद्धापणे केवळज्ञान थयुं एम कहेवाय छे. पहेलां आत्मा अल्पज्ञ ज छे अर्थात् सर्वज्ञशक्ति नथी एवी द्रष्टि हती ते मिथ्या द्रष्टि हती. हवे स्वसन्मुख थई परिणमतां सर्वज्ञस्वभावी हुं छुं एम निश्चय थयो