६४ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११ तो द्रष्टि सम्यक् थई. आवी वात! समजाणुं कांई...? भाई! सर्वज्ञशक्ति छे ते सर्वने जाणवानी अपेक्षा राखे छे माटे व्यवहारे सर्वज्ञ छे एम नहि, सर्वज्ञशक्ति परिणत थतां ते आत्मज्ञानमयी ज छे, पण सर्वने-परने जाणवानी विवक्षा करतां व्यवहार प्रगट थाय छे. आवी वात छे भाई!
संप्रदायमां पण अमारे आ चर्चा-वार्ता चालती. एक वार अमे पूछयुं के-जगतमां सर्वज्ञ छे के नथी? त्यारे तेओ कहे-सर्वज्ञनुं सर्वज्ञ जाणे; अमारे एनुं शुं काम छे?
अरे प्रभु! तुं शुं कहे छे आ? भगवान! तुं आत्मा पदार्थ छो के नहि? तो तेनो स्वभाव शुं? अहाहा...! ‘ज्ञ’ तेनो स्वभाव छे, त्रिकाळी ‘ज्ञ’ स्वभाव आत्मा छे. ‘ज्ञ’ स्वभाव कहो के सर्वज्ञस्वभाव कहो-ते आत्मानुं स्वरूप छे. अहाहा...! आवा सर्वज्ञस्वभावी आत्मानी द्रष्टि थतां सर्वज्ञस्वभावनुं पर्यायमां परिणमन थाय छे. बापु! धर्मनुं मूळ ज सर्वज्ञ छे, केमके सर्वज्ञस्वभावने आलंबीने सर्वज्ञ थया छे, ने सर्वज्ञथी ज आ वीतरागी धर्मनी स्थिति उत्पन्न थई छे. माटे सर्वज्ञ कोण छे अने सर्वज्ञदशानुं परिणमन केम प्राप्त थाय ते बराबर जाणवुं आवश्यक छे.
त्रिकाळ सर्वज्ञस्वभाव विषे बे मत छे. श्वेतांबर मतवाळा कहे छे-केवळज्ञान सत्तास्वरूप छे; एम के केवळज्ञान पर्यायरूपे सत्तामां प्रगटरूप छे, अने उपर कर्मनुं आवरण छे. दिगंबर संतो-ऋषिवरो कहे छे-केवळज्ञान द्रव्यमां शक्तिरूपे छे अने पर्यायमां तेनुं अल्पज्ञरूपे परिणमन छे, पूर्ण ज्ञान (पर्यायमां) प्रगट नथी तेमां निमित्तरूपे कर्मनुं आवरण छे. आम बन्ने वातमां महान-आसमानजमीननुं-अंतर छे. वास्तवमां केवळज्ञान वर्तमान पर्यायमां सत्तारूपे प्रगट नथी, पण शक्तिरूपे द्रव्यमां त्रिकाळ पडेलुं छे. प्रगट छे ने आवरण छे एम नहि, पण शक्तिरूपे अने तेनुं पर्यायमां अल्पज्ञपणे परिणमन छे.
श्रीमद् राजचंद्र स्वरूपने प्राप्त समकिती सत्पुरुष थई गया. तेओ कहे छेः- जो कदी प्रगटपणे वर्तमानमां केवळज्ञाननी उत्पत्ति थई नथी, पण जेना वचनना विचारयोगे शक्तिपणे केवळज्ञान छे एम स्पष्ट जाण्युं छे, श्रद्धापणे केवळज्ञान थयुं छे, विचारदशाए केवळज्ञान थयुं छे, इच्छादशाए केवळज्ञान थयुं छे, मुख्य नयना हेतुथी केवळज्ञान वर्ते छे, ते केवळज्ञान सर्व अव्याबाध सुखनुं प्रगट करनार जेना योगे सहज मात्रमां जीव पामवा योग्य थयो, ते सत्पुरुषना उपकारने सर्वोत्कृष्ट भक्तिए नमस्कार हो! नमस्कार हो!!
अहा! ‘णमो अरिहंताणं’ एम लोको बोली जाय छे, पण अरिहंतदेव शुं चीज छे एनी तमने खबर नथी! अरि नाम विकार, ने हंत नाम तेनो नाश करी स्वना आश्रयथी जे पूरण वीतराग सर्वज्ञदशाने प्राप्त थया ते अरिहंत प्रभु छे. हवे जेने अरिहंतदशा प्रगट नथी, पण हुं सर्वज्ञस्वरूपी अखंड एक आत्मद्रव्य छुं एम प्रतीतिमां आव्युं तेने ते श्रद्धापणे केवळज्ञान थयुं; वळी ते काळे प्रगट ज्ञानमां एवो निश्चय थयो ते विचारदशाए केवळज्ञान थयुं, वळी सर्वज्ञस्वभावनी पूरण प्रगटतारूप केवळज्ञाननी भावना थई ते इच्छादशाए केवळज्ञान थयुं.
पहेलां पर्यायबुद्धिमां केवळज्ञाननां श्रद्धान-ज्ञान ने भावना न हतां. पर्यायबुद्धिमां हुं अल्पज्ञ ज छुं एम मान्युं हतुं, अने तेमां ज रागबुद्धि वर्तती हती. पण हवे, चैतन्यप्रकाशनो पुंज, ज्ञानानंदनो दरियो, शांतरसनो समुद्र हुं सर्वज्ञस्वभावी भगवान आत्मा छुं एम अंतरमां स्वीकार थयो त्यां पर्यायमां श्रद्धापणे केवळज्ञान प्रगट थयुं, विचारदशाए केवळज्ञान प्रगट थयुं, ने अल्पकाळमां आ मति-श्रुतज्ञाननो व्यय थई केवळज्ञान थशे-एम भावनादशाए केवळज्ञान थयुं. अहा! जेम आरसना स्थंभनी एक हांस देखाती होय तो ते एक हांसना ज्ञानथी आखा स्थंभनुं ज्ञान थई जाय छे तेम पोताना सर्वज्ञस्वभावनो निश्चय थतां ज्ञानमां आखा ज्ञेयनो निश्चय थई जाय छे. जेमके मति-श्रुतज्ञान अवयव-अंश छे, ने केवळज्ञान अवयवी-अंशी छे; अंशनुं ज्ञान थतां तेमां अंशीनुं ज्ञान आवी जाय छे. धवलमां आवे छे के -मतिज्ञान ते केवळज्ञाननो अंश छे.
‘खानिया तत्त्वचर्चा’मां पंडितोए दलील करी छे के-आत्मज्ञानमयी एक धर्म छे, ने सर्वज्ञत्व बीजो धर्म छे. पण एम नथी बापु! ए तो विवक्षानो भेद छे, बाकी बन्ने एक ज धर्म छे. सर्वने जाणे अने पोताने जाणे एवी आत्मज्ञानमयी सर्वज्ञत्वशक्ति छे, स्वाश्रित सर्वज्ञदशा प्रगट थई छे तेमां परनी रंचमात्र अपेक्षा नथी. सर्वज्ञपणुं कहो के आत्मज्ञपणुं कहो-बन्ने एक ज चीज छे. समजाय एटलुं समजो बापु! आ वस्तुस्वरूप छे. अरे भाई! केवळज्ञान लेवानी आत्मानी ताकात छे. एने परनी किंचित् अपेक्षा नथी. केवळज्ञाननी पर्याय विश्वना सर्व भावोने जाणे माटे