Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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१०-सर्वज्ञत्वशक्तिः ६प

तेमां परनी अपेक्षा छे एम खरेखर नथी. एक समयमां ते काळे (थवा योग्य) केवळज्ञाननी पर्याय पोताना कारणे प्रगट थई छे, पूर्वना चार ज्ञाननो अभाव थईने केवळज्ञान प्रगटयुं एम कहेवुं एय व्यवहार छे. वास्तवमां सर्वज्ञपणुं ते आत्मज्ञपणुं छे. आवी वात छे.

संवत १९८३मां दामनगरमां एक शेठ साथे आ प्रश्न उपर चर्चा थयेली. तेओ कहे के-लोकालोक छे माटे केवळज्ञान प्रगट थाय छे. त्यारे अमे कह्युं, -एम बीलकुल नथी. ज्ञेय छे तो ज्ञान थाय एवो वस्तुनो स्वभाव नथी. सर्वज्ञपणानी पर्याय स्वाश्रये प्रगट थई छे, तेमां लोकालोकनी जराय अपेक्षा नथी. पण आवो निश्चय कोण करे? कोने (स्व-आश्रयनी) पडी छे? अरे भाई! आ अल्पज्ञता अने आ शुभाशुभ राग तारुं स्वरूप नथी. तुं तो सर्वज्ञस्वभावी छो ने प्रभु? अहाहा...! तारामां सर्वज्ञशक्तिनुं सामर्थ्य भर्युं छे. केवी छे सर्वज्ञशक्ति? तो कहे छे- विश्वना सर्व भावोने जाणवारूप एवा आत्मज्ञानमयी सर्वज्ञशक्ति छे. आत्मज्ञानमयी कहो के सर्वज्ञत्वशक्ति कहो- एक ज वात छे. अरे, लोकोने वात बेसे नहि एटले विरोध करे ने बीजी रीते कहे, पण आ ज सत्य वात छे. अहा! जेना फळमां अनंत केवळज्ञान ने अनंत अतीन्द्रिय आनंद प्रगटे ते चीज केवी होय बापु! ने तेनो उपाय पण केवो होय? परमपद प्राप्तिनी भावना करतां श्रीमद् कहे छे ने? के-

सादि अनंत अनंत समाधि सुखमां,
अनंत दर्शन, ज्ञान, अनंत सहित जो... अपूर्व.

अहा! केवळज्ञान नवुं प्रगट थाय छे माटे सादि-आदिसहित छे, अने तेनो अंत नथी माटे अनंत छे. आ प्रमाणे केवळज्ञाननो काळ सादि-अनंत छे. अहाहा...! अनंत काळ पर्यंत सर्वज्ञदेव समाधिसुखमां लीन-तल्लीन रहे छे. स्तवनमां आवे छे ने के-

‘उपशमरस वरसे रे प्रभु तारा नयनमां...’

अहाहा...! परम चारित्ररूप पूरण वीतरागदशा प्रगट थतां पूरण अकषाय-शांत... शांत... शांतरसनुं भगवानने वेदन होय छे. भगवान निजानंदरसलीन छे. आ ‘परिणमता एवा आत्मज्ञानमयी’ शब्द पडयो छे एनो विस्तार छे. अहा! दिगंबर संत श्री अमृतचंद्राचार्यदेव धर्मना स्थंभ हता. अहाहा...! वीतराग परिणतिना स्थंभ समा वीतरागी संतोनी आ वाणी छे. भाई! तारो स्वभाव पण आवो पूरण वीतरागतामय अने सर्वज्ञताना सामर्थ्यथी भरेलो छे. अंदर जो तो खरो, जोतां वेंत ज हालत थई जशे. अहाहा...! अत्यारे पर्यायमां सर्वज्ञता भले प्रगटी न होय, पण मारी पर्यायमां अल्पकाळमां सर्वज्ञपद प्रगट थई जशे एवी चोथे गुणस्थाने सम्यग्द्रष्टिने सम्यक् प्रतीति थई जाय छे; जेम बीज उगी ते पूनम थशे ज तेम.

अहाहा...! भगवान आत्मा आ शरीरना रजकणथी भिन्न, अचेतन कर्मथी भिन्न, पुण्य-पापरूप भावकर्मथी भिन्न अने अल्पज्ञपणानी दशाथी भिन्न अखंड एकरूप सर्वज्ञस्वरूप वस्तु छे. अहा! ते स्वानुभूतिमां प्राप्त थाय छे, पण रागनी क्रियाथी के व्यवहार करतां करतां प्राप्त थाय एवुं एनुं स्वरूप नथी. व्यवहाररत्नत्रय पण शुभविकल्प छे. ते करतां करतां सम्यग्दर्शन अने केवळज्ञान प्रगट थाय एम बनवाजोग नथी, केमके पोतानी वस्तु एवी नथी. अहीं तो कहे छे-सम्यग्दर्शन थतां एवी प्रतीति थई जाय छे के हुं सर्वज्ञशक्तिमय छुं, ने तेनी परिणति पोताथी उत्पन्न थाय छे, एने लोकालोकनी कोई गरज-अपेक्षा नथी.

अरे भाई! तुं कोण छो? तारा स्वरूपनी तने खबर नथी! समयसारनी जयसेनाचार्यकृत टीकामां आवे छे के कोई एक भाव जो यथार्थ बेसी जाय तो आखी वस्तु यथार्थ ख्यालमां आवी जाय. अहा! द्रव्य-गुण-पर्याय, सर्वदर्शित्व शक्ति, सर्वज्ञत्वशक्ति इत्यादि कोई एक भाव बराबर लक्षमां बेसी जाय तो वस्तु आखी लक्षगत थई समजाई जाय.

अहीं एम बताववुं छे के-आत्मज्ञानमयी अने सर्वज्ञत्वशक्ति ए बे चीज नथी. बन्ने थईने एक ज चीज छे. आत्मज्ञानमयी सर्वज्ञत्वशक्ति ते निश्चय छे, ने लोकालोकने जाणे एम विवक्षाभेद करवो ते व्यवहार छे. अहीं शक्तिना प्रकरणमां निश्चय छे ते मुख्य छे. कोई कहे छे-

आप निश्चयनी वकीलात करो छो. पण भाई! आ जुदी जातनी वकीलात हों; भगवान थवानी आ वकीलात छे. पोते भगवानस्वरूप छे तेने पर्यायमां