६६ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११ प्रगट करवानी आ वात छे.
सवारे रेकोर्डींगमां प्रथम कळशनी बहु सारी वात आवी हतीः “... तेनी अन्तरछेदी अर्थात् एक समयमां युगपद् प्रत्यक्षरूपे जाणनशील जे कोई शुद्ध जीववस्तु, तेने मारा नमस्कार. शुद्ध जीवने ‘सार’पणुं घटे छे. सार अर्थात् हितकारी, असार अर्थात् अहितकारी. त्यां हितकारी सुख जाणवुं, अहितकारी दुःख जाणवुं; कारण के अजीव पदार्थने-पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काळने-अने संसारी जीवने सुख नथी, ज्ञान पण नथी, अने तेमनुं स्वरूप जाणतां जाणनहार जीवने पण सुख नथी, ज्ञान पण नथी, तेथी तेमने ‘सार’पणुं घटतुं नथी. शुद्ध जीवने सुख छे, ज्ञान पण छे, तेने जाणतां-अनुभवतां जाणनहारने सुख छे, ज्ञान पण छे, तेथी शुद्ध जीवने ‘सार’ पणुं घटे छे.”
अहीं एम कहे छे के-एक पुद्गल परमाणुथी मांडीने शरीर, मन, वाणी, पैसा, स्त्रीनुं शरीर इत्यादि चीजोमां सुख नथी, ज्ञान पण नथी. निगोदना अनंता जीव छे तेने पण परिणतिमां सुख नथी, ज्ञान पण नथी. जुओ, आ शक्तिनी वात नथी. निगोदना अनंत जीव अने आ शरीरादि परमाणुना स्कंध तेने जाणनार जीवने पण सुख नथी, ज्ञान नथी, अहाहा...! संसारी प्राणी-निगोद आदि अनंत जीव-जे मलिनभावे पर्यायमां परिणम्या छे तेमने प्रगट दशामां सुखेय नथी, ज्ञानेय नथी. वस्तुमां त्रिकाळ सुखस्वभाव ने ज्ञानस्वभाव छे एनी अहीं वात नथी. अहीं तो कहे छे-अज्ञानी जीव जे निगोदादि संसारी जीवने जाणे तो ते जाणनहारने सुख नथी, ज्ञान पण नथी. अहा! राजमलजीए गजबनी टीका करी छे. निगोदादि संसारी जीवोने तो पर्यायमां सुख नथी, तेना जाणनारनेय सुख ने ज्ञान नथी. गजब वात छे भाई!
शुद्ध चैतन्यस्वरूप भगवान आत्मा पूर्णानंदनो नाथ प्रभु अने सिद्ध परमात्मा ते शुद्ध जीव छे. ते बन्नेने सुख पण छे, ज्ञान पण छे; अने तेमने जाणनार जीवने पण सुख छे अने ज्ञान पण छे. परंतु शुद्ध जीवने जाण्यो कयारे कहेवाय? के भगवान सिद्ध परमात्मा जेम शुद्ध छे तेम मारो भगवान आत्मा पण त्रिकाळ शुद्ध छे. अहाहा...! ‘सिद्ध समान सदा पद मेरो.’ अहा! आ त्रिकाळी शुद्धनी द्रष्टि करी परिणमवाथी, ते स्वद्रव्यनी सन्मुख थईने तेना आश्रये परिणमवाथी स्वानुभवनी दशा प्रगट थाय छे, निर्मळ श्रद्धान-ज्ञान प्रगट थाय छे अने भेगी अतीन्द्रिय सुखना आस्वादरूप दशा प्रगटे छे. आवे छे ने नाटक समयसारमां के-
रस स्वादत सुख उपजै, अनुभव ताको नाम,
अहा! आवी स्वानुभवनी दशा प्रगट करे त्यारे शुद्धने जाण्यो कहेवाय. शुद्ध जीवमां सुख छे, ज्ञान छे, माटे तेना जाणनारने पण सुख अने ज्ञान छे.
प्रश्नः– सिद्धने जाणतां सुख छे के नहि? उत्तरः– हा, सिद्धने जाणतां सुख छे; पण सिद्धने जाण्या कयारे कहेवाय? के पोतानो स्वभाव सदा सिद्ध समान शुद्ध छे एम निश्चय करी स्वभावसन्मुख थईने तेनो अनुभव अने प्रतीति करे त्यारे सिद्धने जाण्या कहेवाय. साथे तेमां अतीन्द्रिय सुखनो आस्वाद पण होय छे.
प्रश्नः– आमां स्वद्रव्यने जाणवानी शी जरूर छे? उत्तरः– अरे भाई! परद्रव्यने जाणवा जाय ए तो विकल्प छे, अने विकल्प छे ए तो दुःख ज छे. मोक्षपाहुडनी सोळमी गाथामां आचार्यदेव कहे छे-‘परदव्वादो दुग्गई’. अहा! भगवाननी वाणीमां आवेली कोई अलौकिक वातो दिगंबर संतोए करी छे. स्वद्रव्य सिवाय भाई! अन्य द्रव्य उपर तारुं लक्ष जशे तो नियमथी विकल्प ज उत्पन्न थशे, अने तेथी तने दुःख ज थशे. त्यां तो परद्रव्यना लक्षे विकल्प थाय ते दुर्गति छे एम जाणी पोताना स्वरूपमां मग्न थई जाय छे एनी वात करी छे.
अहा! मारी पर्यायमां सर्वज्ञता नथी, ने भगवानने पर्यायमां सर्वज्ञपणुं प्रगट छे तो ते सर्वज्ञपणुं आव्युं कयांथी? के पोताना स्वरूपमां सर्वज्ञशक्ति त्रिकाळ पडी छे तेम निश्चय करी निज स्वरूपनुं आलंबन लेवाथी पर्यायमां सर्वज्ञपणुं प्रगट थयुं छे, परने जाणतां प्रगट थयुं छे एम नथी. माटे परने जाणवाना क्षोभथी-आकांक्षाथी विराम पामी स्वस्वरूपना आश्रये परिणमवुं ने त्यां ज रमवुं, ठरवुं ने लीन थवुं ते ज सर्वज्ञ थवानो मार्ग छे. आवी वात छे. ल्यो,
आ प्रमाणे अहीं सर्वज्ञत्वशक्ति पूरी थई.