‘अमूर्तिक आत्मप्रदेशोमां प्रकाशमान लोकालोकना आकारोथी मेचक (अर्थात् अनेक-आकाररूप) एवो उपयोग जेनुं लक्षण छे एवी स्वच्छत्वशक्ति. (जेम दर्पणनी स्वच्छत्वशक्तिथी तेना पर्यायमां घटपटादि प्रकाशे छे, तेम आत्मानी स्वच्छत्वशक्तिथी तेना उपयोगमां लोकालोकना आकारो प्रकाशे छे.)’
ओहो! ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि अनंत शक्तिओनो भंडार एवा भगवान आत्माने असंख्य प्रदेशो छे ते अमूर्तिक छे. अहाहा...! चैतन्यना असंख्य प्रदेशो अमूर्तिक छे. अमूर्तिक एटले शुं? के तेमां कोई स्पर्श, रस, गंध के वर्ण नथी. समजाणुं कांई...? अहा! ते प्रदेशोमां, कहे छे, प्रकाशमान लोकालोकना आकारोथी मेचक अर्थात् अनेक आकाररूप एवो उपयोग जेनुं लक्षण छे एवी स्वच्छत्व नामनी शक्ति त्रिकाळ पडी छे. अहीं लोकालोकना आकारो कह्या तेमां जड ने चेतन सर्व पदार्थो आवी गया. जड पुद्गलना स्पर्श, रस, गंध, वर्ण अहीं उपयोगमां जाणवामां आवे छे, पण ते जड मूर्तिक पदार्थो कांई आत्माना अमूर्तिक प्रदेशोमां प्रवेशे छे एम नथी. ए तो आत्मा सर्व पदार्थोने कोई परनी अपेक्षा विना ज पोताना उपयोगमां जाणी ले एवो ज तेनी स्वच्छत्वशक्तिनो स्वभाव छे.
प्रश्नः– लोकालोक छे तो तेनुं ज्ञान थाय छे ने? उत्तरः– ना, एम बीलकुल नथी. स्वच्छत्वशक्ति स्वतः पोताथी ज स्वच्छतारूपे परिणमे छे अने ते वडे उपयोगमां लोकालोकना आकारो सहज ज जणाय छे. लोकालोक छे तो उपयोगमां तेनुं जाणवारूपी कार्य थाय छे एम छे नहि.
आ तो भगवान सर्वज्ञदेवनी वाणी भाई! भगवानना समोसरणमां सो इन्द्रो आ वाणी सांभळवा आवे छे. केसरी-सिंह, वाघ, मोटा काळा नाग वगेरे पण भगवाननी वाणी सांभळवा जंगलमांथी आवे छे. समोसरणमां उपर जवा माटे २० हजार रत्नमय पगथियां होय छे. एक अंतर्मुहूर्तमां सौ उपर पहोंची जाय छे, ने त्यां जई भगवाननी दिव्य ओम्ध्वनि सांभळे छे. ओहो! निर्वेर थई अति नम्रभावे समोसरणमां बेसीने सौ भगवाननी वाणी सांभळे छे.
प्रश्नः– तो शुं सिंह अने वाघ ते वाणी समजतां हशे? उत्तरः– हा, पोतपोतानी भाषामां बराबर ते तिर्यंचो समजी जाय छे; अने केटलांक तो वाणी सांभळीने त्यां सम्यग्दर्शन पण पामी जाय छे. शरीर-कलेवर भले सिंह के वाघनुं होय, पण अंदर तो सर्वज्ञस्वभावी भगवान आत्मा विराजे छे ने? अहाहा...! अंदर पूणानंदनो नाथ प्रभु आत्मा छे ते यथार्थ समजी जाय छे. भाई! तुं पण मनुष्य नथी, भगवान आत्मा छो. (एम यथार्थ चिंतव).
अढी द्वीप सुधी मनुष्य छे. अढी द्वीपनी बहार असंख्य तिर्यंचो सम्यग्द्रष्टि, पंचम गुणस्थानवाळा पडयां छे. छेल्लो स्वयंभूरमण नामनो समुद्र छे. तेमां हजार योजननी लंबाईवाळा शरीरधारी मोटा मगरमच्छ छे. तेमां कोई कोई सम्यग्द्रष्टि अने पांचमा गुणस्थानवाळा श्रावक तिर्यंचो छे. अंतरंगमां शांतिनी वृद्धि थईने तेमने श्रावकदशा प्रगटी छे. आगममां पाठ छे के अढी द्वीपनी बहार असंख्य सम्यग्द्रष्टि आत्मज्ञानी तिर्यंचो छे. तेमांथी कोई कोईने तो सम्यग्दर्शन उपरांत स्व-आश्रये शांतिनी वृद्धि थईने श्रावकनुं पांचमुं गुणस्थान वर्ते छे. तेमां केटलाक जातिस्मरणज्ञानवाळा, अवधिज्ञानवाळा पंचम गुणस्थानवर्तीछे. कोई स्थळचर प्राणीओ-वाघ, रींछ, हाथी, घोडा वगेरे, कोई जलचर ने कोई नभचर-कौआ, पोपट, चकला, चकली वगेरे असंख्य तिर्यंचो सम्यग्दर्शन सहित पांचमा गुणस्थानवाळा त्यां अढी द्वीपनी बहार छे. भले थोडां छे, तोपण असंख्य छे. तिर्यंचोनी संख्या घणी मोटी छे. तेमां असंख्य मिथ्याद्रष्टि सामे कोईक एक सम्यग्द्रष्टि छे.
जीवे सौथी ओछा भव मनुष्यना कर्या छे. अनंत वार आ जीवने मनुष्यपणुं आव्युं छे, तो पण चारे गतिमां सौथी ओछा भव मनुष्यना कर्या छे. जेटला (-अनंत) भव मनुष्यना कर्या छे तेना करतां असंख्यात गुणा अनंत भव नरकना कर्या छे. नरकना जेटला भव कर्या छे तेनाथी असंख्यात गुणा अनंत भव स्वर्गना कर्या छे. स्वर्गमां जीव कयांथी आवे छे? नरकमांथी तो जीव स्वर्गमां जता नथी, ने मनुष्य बहु थोडी संख्यामां छे. एटले तिर्यंचमांथी ज मरीने घणा जीवो स्वर्गमां जाय छे. तिर्यंचमांथी केटलाक जीवो मरीने नरकमां पण जाय छे. मनवाळा अने मन वगरना पंचेन्द्रिय तिर्यंचोनी संख्या घणी मोटी छे. तेमां कोईने शुक्ललेश्या, पघलेश्या के पीतलेश्याना भाव थाय छे, ते मरीने स्वर्गमां जाय छे.