६८ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११
आ बळद वगेरे पशुओने देखीने एम थाय छे के-अरेरे! आ बिचारा जीव कयां जशे? धर्मना परिणाम तो तेने नहि, ने पुण्यनां पण कयां ठेकाणां छे? अरेरे! मरीने नरके जशे अथवा पशु मरीने पशु थशे. स्वर्गना भव करतां एकेन्द्रियथी पंचेन्द्रिय सुधीना तिर्यंचना भव जीवे असंख्यात गुणा अनंता कर्या छे. अरे! आत्मज्ञान विना देहबुद्धि वडे आवा अनंत भव करी करीने जीव मरी गयो छे, महादुःखी थयो छे. अहा! तेना दुःखनुं शुं कथन करीए? पारावार अकथ्य दुःख एणे सहन कर्यां छे.
अहीं कहे छे-भगवान आत्माना प्रदेशो अमूर्तिक छे. तेमां मूर्त द्रव्य आवतुं-पेसतुं नथी. हा, पण मूर्तिकनी ज्ञानमां प्रतिच्छाया तो पडे छे ने? ना, आ सामे लीमडो छे तो शुं ज्ञानमां लीमडानो आकार आवे छे? ना, लीमडो (कलेवर) तो जड छे, स्पर्श, रस, गंध, वर्णवाळो मूर्तिक पदार्थ छे. ते मूर्तिक पदार्थ अमूर्तिक चैतन्यप्रदेशोमां आवतो-पेसतो नथी; ने ते मूर्तिक पदार्थ संबंधीनुं ज्ञान अहीं पोताथी ज परिणमे छे. जो जड ज्ञेयाकार ज्ञानमां पेसे तो ज्ञान जड थई जाय, पण एम छे नहि. मूर्तिक पदार्थने जाणतां ज्ञाननी पर्याय मूर्तिक थई जाय एम त्रणकाळमां नथी. अमूर्तिक चैतन्यप्रदेशो मूर्तिक केवी रीते थाय?
अहा! ज्ञानमात्र वस्तु आत्मा छे तेनी सन्मुख थई परिणमतां सम्यग्दर्शन-ज्ञान प्रगट थाय छे. त्यारे भेगी स्वच्छत्वशक्ति पण परिणमी जाय छे. अहा! ते स्वच्छ उपयोग लोकालोकने जाणतो थको मेचक-अनेकाकार छे छतां तेमां कांई मलिनता थती नथी, उपयोग तो स्वच्छ एक ज्ञानरूप ज रहे छे. अहा! साधकनुं ज्ञान एवी स्वच्छतापणे परिणम्युं छे के ते सहचर रागने जाणे छतां रागरूप मलिन थई जतुं नथी. शुं कीधुं? राग छे ते मेल छे, पण रागने जाणनारुं ज्ञान मलिन नथी, स्वच्छ छे. स्वच्छत्वशक्ति परिणमतां आत्माना उपयोगनुं एवुं सामर्थ्य प्रगटे छे के उपयोग अनेक पदार्थोने जाणे छतां ते मलिन थतो नथी, पण अरूपी, स्वच्छ ने निरुपाधिक निर्विकार ज रहे छे. आखा लोकालोकने जाणवारूप जे मेचकता (अनेकपणुं) छे ए तो ज्ञाननी-उपयोगनी स्वच्छताने प्रसिद्ध करे छे. अहा! ज्ञानमां पूरो लोकालोक न जणाय तो ते ज्ञाननी स्वच्छता शुं? ने दिव्यता पण शुं?
आत्माना प्रदेशोमां लोकालोकना आकारोथी अनेक आकाररूप उपयोग परिणमे छे. एवो उपयोग ते स्वच्छत्वशक्तिनुं लक्षण छे. स्व अने पर संबंधीनुं विशेष ज्ञान थाय तेने अहीं आकार कहेल छे. स्व-पर अर्थनुं ज्ञान तेने आकार कहे छे. अर्थ-विकल्पने ज्ञानाकार कहे छे. आमां तो वाते वाते फेर छे भाई! आवो मारग सूक्ष्म, जेवो छे तेवो यथार्थ समजवो जोईए.
दर्शन निराकार-निर्विकल्प छे, ने ज्ञान साकार छे. ज्ञान साकार छे एटले तेमां जडनो आकार आवे छे वा ते परना-जडना आकाररूपे थई जाय छे एम तेनो अर्थ नथी. स्व अने परने भिन्न भिन्न प्रकाशनारी ज्ञाननी परिणतिने अहीं आकार कहेल छे. ज्ञेयाकारोने जाणवापणे ज्ञाननुं विशेषरूपे परिणमन थवुं तेने अहीं आकार कहेवामां आवेल छे. विश्वना समस्त ज्ञेयाकारोने जाणवापणे विशेष परिणमे ते खरेखर उपयोगनी स्वच्छता छे अने ते खरेखर जीवनी स्वच्छत्वशक्तिनुं लक्षण छे. हवे आवी वात कदी कानेय न पडे ते बिचारा पोतानी चीज शुं छे ते केम जाणे?
अरेरे! जीव बिचारा चोरासीना अवतारोमां रखडी मरे छे. अहा! अहीं मोटो अबजोपति शेठ होय ने क्षणमां मरीने ते सातमी नरकमां जई पडे! तेनी पीडानी शी वात करवी भाई! एवी अपार अंकथ्य एनी वेदना ने पीडा छे के तेने जोनारने पण रूदन आवी जाय. अहा! आवा पीडाकारी स्थानमां जीवे अनंत वार जन्म-मरण कर्यां छे. अहा! पण ते भूली गयो छे. अहीं मनुष्यपणुं मळ्युं, तेमां वळी पांच-पचीस लाखनी मूडी थई, ने स्त्री- बाळको कांईक सरखां-सारां मळ्यां तो त्यां गर्वित थई मोहवश ते मिथ्या अभिमानमां चढी गयो छे. पण अरे भगवान! आ तुं शुं करे छे? आवुं पागलपणुं-गांडपण तने कयांथी आव्युं? तारी चीज शुं छे ए तो जो.
वळी शरीर कांईक सुंदर-रूपाळुं मळ्युं होय तो त्यां पागल थई गयो. तेने नवडावे, धोवडावे ने अरीसामां मोढुं जोई तेना पर अनेक संस्कार करे ने माने के हुं रूपाळो-स्वच्छ थई गयो. अरे भाई! तें आ शुं पागलपणुं मांडयुं छे? शुं शरीरने धोवाथी कदी आत्मा स्वच्छ थाय? शरीरने धोवाथी शरीर स्वच्छ न थाय तो आत्मा कयांथी स्वच्छ थाय? स्वच्छता तो आत्मानो स्वभाव छे, ते कांई शरीर धोवाथी प्रगटे एम नथी; पण स्वच्छता जेनो स्वभाव छे तेवा निज