आत्मस्वरूपनी सन्मुख थई परिणमतां स्वच्छता प्रगटे छे. अरे! अज्ञानीओ निज चैतन्यना स्वच्छताना स्वभावने भूलीने देहना संस्कारमां (स्नानादिमां) धर्म थवानुं माने छे! पण भाई! एमां कांई हाथ आवे एम नथी. समजाणुं कांई...?
भाई! आ लाकडां ने घास जेम बळे तेम तुं जेना संस्कार (स्नानादि) करे छे ते आ रूपाळुं शरीर बळीने खाक थई जशे. तेमांथी बीजुं कांई नहि नीकळे; अर्थात् आत्मानां शांति ने स्वच्छता तेमांथी नहि नीकळे. आवी वात!
भगवान! तुं तो चैतन्यमय अमूर्तिक प्रदेशोनो पुंज छो ने प्रभु! अहाहा...! तारा स्वच्छ उपयोगमां जड मूर्तिक पदार्थो जणाय छे तो उपयोग कांई जड मूर्तिक आकाररूप थई जतो नथी. तारा ज्ञानना उपयोगमां कांई मूर्तिकनो आकार आवतो नथी. ज्ञानने साकार कह्युं त्यां आकार एटले विशेषता सहितनुं ज्ञान एम अर्थ छे. ज्ञेयनुं जेवुं स्वरूप छे ते प्रमाणे विशेषता सहित ज्ञाननुं परिणमन थाय तेने आकार कहे छे. ज्ञान तो ज्ञानाकार ज छे, ते ज्ञानाकार-स्व-आकार रहीने ज अनेक पर ज्ञेयाकारोने जाणे छे. अहा! लोकालोकने जाणतां अनेकाकाररूप उपयोग छे ते ज्ञानाकार-स्व-आकाररूप छे अने ते स्वच्छत्वशक्तिनुं लक्षण छे. आवी सूक्ष्म वात!
प्रथम चितिशक्ति कहीने तेना बे भेद पाडया-दृशिशक्ति अने ज्ञानशक्ति. पछी सर्वदर्शित अने सर्वज्ञत्व शक्तिओ कही. तेनाथी भिन्न आ स्वच्छत्वशक्ति अहीं कहेवामां आवी. केवी छे स्वच्छत्वशक्ति? तो कहे छे- ‘अमूर्तिक आत्मप्रदेशोमां प्रकाशमान लोकालोकना आकारोथी मेचक-अनेकाकाररूप एवो उपयोग जेनुं लक्षण छे एवी स्वच्छत्व-शक्ति.’ अहा! स्वस्वरूपना आश्रयपूर्वक स्वच्छता परिणत थतां ज्ञाननी-उपयोगनी एवी कोई निर्मळता- स्वच्छता थाय छे के एना परिणमनमां लोकालोक-मूर्तिक अने अमूर्तिक एम बधुंय-तेमां-अमूर्तिक आत्मप्रदेशोमां झळके छे, प्रतिभासे छे, जणाय छे. अहा! अंतर्मुख ऊंडा उतरीने जुए तो अंदर आवां विस्मयकारी अद्भुत चैतन्यनां निधान पडयां छे; पण अरे! अज्ञानी प्राणीओ बहारमां-धन अने देहादिमां-मूर्च्छित-पागल थईने पडया छे!
हवे अहीं अरीसानुं द्रष्टांत आपे छेः ‘जेम दर्पणनी स्वच्छत्वशक्तिथी तेना पर्यायमां घटपटादि प्रकाशे छे, तेम आत्मानी स्वच्छत्वशक्तिथी तेना उपयोगमां लोकालोकना आकारो प्रकाशे छे.’
जोयुं? स्वच्छत्व दर्पणनो स्वभाव-शक्ति छे, अने तेनी पर्यायमां घट-पट आदि पदार्थो प्रकाशे-प्रतिभासे छे. त्यां घट-पट आदि पदार्थो कांई दर्पणमां जता नथी, पेसता नथी, पण ए तो घट-पट आदि संबंधी अरीसानी स्वच्छतानी पर्याय जोवामां आवे छे. अरीसानी सामे अग्नि होय के बरफ होय, अरीसामां ते ते प्रकारना प्रतिभासरूप प्रतिबिंब देखाय छे. त्यां वास्तवमां कांई अरीसामां अग्नि के बरफ नथी. फक्त सामे जे जे पदार्थ छे ते प्रकारनी अरीसानी स्वच्छतानी पर्याय अरीसामां देखाय छे. खरेखर अरीसामां अग्नि के बरफ नथी देखातो, पण तेवुं अरीसानी स्वच्छतानुं ज परिणमन छे जे देखाय छे. तेवी ज रीते भगवान आत्मानी स्वच्छत्वशक्ति परिणमतां तेना उपयोगमां लोकालोक जाणवामां आवे छे. अहा! आवी ज स्वच्छत्व शक्तिनी निर्मळ पर्याय छे. अरे! जीवे आवुं पोतानुं स्वरूप समजवानी कदी दरकार करी नथी. मारुं शुं थशे? हुं मरीने कयां जईश? -एने एवो विचार ज नथी!
अहाहा...! भगवान! तुं कोण छो? अहाहा...! लोकालोकनो अरीसो एवो चैतन्यमूर्ति प्रभु तुं आत्मा छो. अहा! तारी स्वच्छतामां लोकालोक एवा स्पष्ट झळके-प्रतिभासे छे के जाणे लोकालोक तेमां (-उपयोगमां) पेसी गया होय? पण खरेखर कांई लोकालोक आत्माना उपयोगमां पेसी जता नथी, लोकालोक तो बहार ज छे, पण आत्मानो स्वच्छ उपयोग ज तेवा प्रतिभासस्वरूपे परिणम्यो छे. अहा! लोकालोक जणाय छे ते खरेखर उपयोगनी स्वच्छता ज जणाय छे. अहा! आवी स्वच्छत्वशक्ति आत्मामां त्रिकाळ छे अने ते द्रव्य-गुण-पर्याय त्रणेमां व्यापे छे. अहा! उपयोगनी स्वच्छतानो एवो कोई अचिंत्य स्वभाव छे के परनी साथे जोवा विना ज पोते पोताना स्वभावथी ज लोकालोकने जाणवारूपे परिणमी जाय छे. आवी वात! समजाणुं कांई...? हवे पोते कोण छे? केवडो छे?-एनी खबर न मळे ए बिचारा शुं करे? (भवसमुद्रमां डूबी मरे.)
सं. १९६४नी सालमां अमे एक ‘अनसूया’नुं नाटक जोयेलुं. ते वखतनां नाटको वैराग्यरसथी भरपुर भजवातां. अनसूया परणी न हती. स्वर्गे जतां तेने देवे कह्युं, -‘अपुत्रस्य गतिर्नास्ति’-जेने पुत्र न होय तेने स्वर्गनी गति