७०ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११ न मळे. (आ तो अन्यमतनी मान्यता छे, खरेखर एम छे एम नहि.) माटे तुं नीचे जा, अने प्रथम जे सामे मळे तेने वर. पछी अनसूया नीचे आवी, अने प्रथम सामे मळेल अंध ब्राह्मण साथे परथी. तेने एक बाळक थयुं. अनसूया बाळकने पारणामां झुलावी हालरडुं गाती के-‘बेटा! तुं शुद्ध छो, तुं निर्विकल्प छो, तुं उदासीन छो.’ ल्यो, आवुं हालरडुं गाईने बाळकने सुवाडती. हवे ते वखते नाटकमां पण आवी वात बतावाती! समयसार बंध अधिकारमां अने सर्वविशुद्धज्ञान अधिकारमां (जयसेनाचार्यदेवकृत तात्पर्यवृत्ति टीकामां) पण आ वात छे. परमात्मप्रकाशमां पण छेल्ले घणा विशेषणो सहित आ वात आवी छे. तुं त्रिकाळ शुद्ध छो, पूर्णानंदस्वरूप भगवान छो, तेनी भावना कर तो तारुं कल्याण थशे एम त्यां वात छे.
परमात्मप्रकाशमां अंतिम कथन करतां टीकाकार श्री ब्रह्मदेवसूरि कहे छेः- आ परमात्मप्रकाशनी वृत्तिनुं व्याख्यान जाणीने भव्यजनोए शुं करवुं? तो आ परमात्मप्रकाशनी वृत्तिनुं व्याख्यान जाणीने भव्यजनोए आवो विचार करवो जोईए के-
“शुद्धनिश्चयनयथी हुं एक (केवळ) त्रण लोकमां त्रणकाळमां मन-वचन-कायाथी अने कृत-कारित- अनुमोदनथी उदासीन छुं, निज निरंजन शुद्ध आत्माना सम्यक्श्रद्धान, सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्अनुष्ठानरूप निश्चयरत्नत्रयात्मक निर्विकल्प समाधिथी उत्पन्न वीतराग सहजानंदरूप सुखानुभूतिमात्र लक्षणवाळा, स्वसंवेदनज्ञानथी स्वसंवेद्य, गम्य, प्राप्त एवो परिपूर्ण हुं छुं. राग, द्वेष, मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ, पांच इन्द्रियोना विषय व्यापार, मन-वचन-कायाना व्यापार, भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्म, ख्याति, लाभ, पूजा, देखेला, सांभळेला अने अनुभवेला भोगोनी आकांक्षारूप निदान, माया, मिथ्यात्व-ए त्रणे शल्य आदि सर्वे विभावपरिणामोथी रहित-शून्य हुं छुं. सर्वे जीवो पण आवा ज छे, -एवी निरंतर भावना करवी.”
अहा! आम आत्मा अनंत गुण-स्वभावोनुं संग्रहस्थान त्रिकाळ शुद्ध, पवित्र, स्वच्छ चैतन्यमय महापदार्थ छे. अहा! तेनी अनंत शक्ति-स्वभावोने जाणीने शक्तिवान निज द्रव्य उपर अंतर-द्रष्टि देवी ते सम्यग्दर्शन छे अने ते धर्मनी प्रथम दशा छे. अहाहा...! द्रव्य द्रष्टि ते सम्यग्द्रष्टि छे. समयसारमां द्रव्यद्रष्टिनो अधिकार छे; अहीं (-परिशिष्टमां) आचार्यदेवे शक्तिनो अधिकार लीधो छे. तेमां शक्तिनो आधार हुं आत्मा अने आधेय शक्ति एवो भेद दूर करी अभेद एक निज आत्मद्रव्यनी सन्मुख ज्ञाननी पर्यायने झुकाववाथी ज्ञाननी पर्यायमां तेनुं भान थईने अंतर-प्रतीति प्रगट थाय छे एम कह्युं छे. आनुं नाम सम्यग्ज्ञान अने सम्यग्दर्शन छे; अने आ धर्म छे. लोकोने आ कठण पडे छे एटले आ एकान्त छे एम राडो नाखे छे, पण भाई! आ सम्यक् एकान्त छे बापु! बाकी निमित्तथी उपादानमां कार्य थाय, व्यवहारथी निश्चय थाय इत्यादि तुं माने पण तारी एवी मान्यता यथार्थ नथी, मिथ्या छे.
अरे भाई! समयसार गाथा ३७२ मां आचार्यदेव वस्तुस्थिति तो आवी प्रगट करे छे के-कुंभारथी घडो थाय एवुं अमे देखता नथी. माटीथी घडो थाय छे, कुंभारथी नहि. माटी ध्रुव उपादान छे अने घडानी पर्याय क्षणिक उपादान छे; तेमां कुंभार निमित्त छे, पण निमित्त शुं करे? निमित्त परनुं कांई पण करे ए त्रणकाळ त्रणलोकमां संभवित नथी, केमके पर वडे परनुं कार्य करावानी अयोग्यता छे. निमित्तथी उपादाननुं कार्य थाय ए वात जैनदर्शनमां नथी. तेमव्यवहार छे ते निश्चय अपेक्षा निमित्त हो, पण व्यवहारनो शुभराग आत्मस्वभावनी प्राप्तिमां सहायक छे एम नथी. लोकोने-केटलाकने आ आकरुं लागे छे पण शुं थाय? मार्ग ज आवो छे, ने वस्तु पण आवी ज छे.
सवारे कळशटीकाना कळश ६०मां आव्युं हतुं के-“... ज्ञान भिन्न, क्रोध भिन्न-एवुं अनुभववुं घणुं ज कठण छे. उत्तर आम छे के साचे ज कठण छे, परंतु वस्तुनुं शुद्ध स्वरूप विचारतां भिन्नपणारूप स्वाद आवे छे.”
भाई! कठण तो छे, पण अशकय नथी. घणुं कठण लागे छे केमके अनादिथी भेदज्ञाननो अभ्यास नथी. शरीर मारुं, राग मारो, पुण्य मारां अने आ पर्याय ते ज हुं-आवी विपरीत द्रष्टि आडे तेनाथी भेदज्ञान करवानो तेने अभ्यास ज नथी; अने भेदज्ञानना अभ्यास विना प्राप्त थाय एवी आ चीज नथी.
अहीं स्वच्छत्वशक्तिनी वात चाले छे. जेम दर्पणमां घट, पट आदि प्रकाशे छे ते घट के पट आदि नथी, ते तो दर्पणनी स्वच्छतानी ज अवस्था छे; तेम अमूर्तिक भगवान आत्माना असंख्य अमूर्तिक चैतन्यप्रदेशो छे, तेमां लोकालोकना आकारनो भास थाय छे ते खरेखर लोकालोक नथी, ए तो पोतानी स्वच्छत्वशक्तिनुं परिणमन छे. अहो! लोकालोकने प्रकाशनारो भगवान आत्मा कोई अद्भुत चैतन्य अरीसो छे. ते पोते पोताने प्रकाशे ने परने पण प्रकाशे