७२ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११ प्रत्यक्ष जणाय एवो एनो स्वभाव छे; भाई! परोक्ष रहे एवो आत्मानो स्वभाव नथी. हा, पण ते ईन्द्रिय प्रत्यक्ष नथी, स्वरूप प्रत्यक्ष-स्वसंवेदन प्रत्यक्ष छे. समजाणुं कांई...?
अहाहा...! स्वसन्मुख थतां आत्माना अतीन्द्रिय आनंदनुं प्रत्यक्ष वेदन थयुं ते प्रकाशशक्तिनुं कार्य छे; साथे व्यवहार छे ने बाह्य निमित्त छे तो आ कार्य नीपज्युं छे एम नथी.
प्रश्नः– तो शुं व्यवहार नथी? निमित्त नथी? आप व्यवहार ने निमित्तने उडावो छो. उत्तरः– अरे भाई! व्यवहार नथी, निमित्त नथी-एम कोण कहे छे? व्यवहार छे, बाह्य निमित्त छे; ते जेम छे तेम न जाणे तो तेनुं ज्ञान मिथ्या छे, वळी व्यवहार ने निमित्तथी आत्मा प्रत्यक्ष थाय, वा तेनां निर्मळ ज्ञान- श्रद्धान प्रगट थाय-एम माने तेय विपरीत श्रद्धान छे. अहीं एम वात छे के व्यवहार के बाह्य निमित्तथी आत्मा प्रत्यक्ष न थाय, पण तेनुं लक्ष छोडी स्व सन्मुखता करतां स्वसंवेदनमां ज आत्मा प्रत्यक्ष थाय छे. अहाहा...! आवो आत्मानो प्रकाशस्वभाव छे. अहीं तो व्यवहार ने निमित्तनुं जेम छे तेम स्थापन छे, पण तेना लक्षे-आश्रये आत्मानुभवरूप -आत्माना ज्ञान-श्रद्धान-रमणतारूप धर्म प्रगट थाय ए मान्यतानो निषेध छे, केमके एवुं वस्तुस्वरूप नथी. समजाणुं कांई...?
अहा! अनंत काळथी चोरासीना अवतारोमां रखडतां-रझळतां भाई! तने मांड आ मनुष्यभव मळ्यो, अने तेमांय जैनमां तारो जन्म थयो ए कोई महाभाग्य छे; अहा! आ बधुं होवा छतां अंतरमां रुचि लावी तुं आ तत्त्व-ज्ञाननी-भेदज्ञाननी तारा हितनी वात तुं न समजे तो अंतर-अनुभव कयांथी थाय? अरे भाई! तुं सांभळ तो खरो, अहीं संतो परमात्मानो संदेश पोकारीने जगत पासे जाहेर करे छे के-प्रभु! तारा स्वसंवेदनमां तारो आत्मा प्रत्यक्ष थाय एवी प्रकाशशक्तिथी तुं त्रिकाळ भरपुर छो.
हवे जिंदगीमां कदी आवी तत्त्वनी वात सांभळवानी फुरसद न होय ए तो बिचारा-मोटा करोडपति होय तोय बिचारा हों-रळवुं-कमावुं, खावुं-पीवुं ने खेलवुं, ने विषयभोगमां रहेवुं-बस एम ज जिंदगी वीतावे छे, पण ए तो जिंदगीएळे (-निष्फळ) जाय छे हों. अरे प्रभु! तुं कोण छो? ने तारुं कार्य शुं छे? -तेनी तने खबर नथी! अहा! तुं आत्मानुं (अंतर-अनुभवनुं) कार्य करवानुं छोडी दईने दया, दान, व्रत, भक्ति, पूजा इत्यादि शुभरागनी क्रियामां धर्म मानी त्यां ज रोकाई गयो! पण भाई! ए तो जगपंथ छे, ए धर्मपंथ नहि; धर्मपंथ तो स्वानुभवमयी कोई अलौकिक छे.
प्रवचनसार, गाथा १७२मां ‘अलिंगग्रहण’ शब्द आवे छे. श्री अमृतचंद्राचार्यदेवे ते शब्दना २० अर्थ कर्या छे. तेमां कह्युं छे-
“ग्राहक (-ज्ञायक) एवा जेने लिंगो वडे एटले के ईन्द्रियो वडे ग्रहण (-जाणवुं) थतुं नथी ते अलिंगग्रहण छे; आ रीते आत्मा अतीन्द्रियज्ञानमय छे एवा अर्थनी प्राप्ति थाय छे. -१.
ग्राह्य (जणावायोग्य) एवा जेनुं, लिंगो वडे एटले के इन्द्रियो वडे ग्रहण (-जाणवुं) थतुं नथी ते अलिंगग्रहण छे; आ रीते आत्मा इन्द्रियप्रत्यक्षनो विषय नथी एवा अर्थनी प्राप्ति थाय छे. -२.
जेम धुमाडा द्वारा अग्निनुं ग्रहण थाय छे तेम लिंग द्वारा एटले के इन्द्रियगम्य द्वारा (-इन्द्रियोथी जणावायोग्य चिन्ह द्वारा) जेनुं ग्रहण (-जाणवुं) थतुं नथी ते अलिंगग्रहण छे; आ रीते आत्मा इन्द्रियप्रत्यक्षपूर्वक अनुमाननो विषय नथी एवा अर्थनी प्राप्ति थाय छे. -३.
बीजाओ वडे मात्र लिंग द्वारा ज जेनुं ग्रहण थतुं नथी ते अलिंगग्रहण छे; आ रीते आत्मा अनुमेयमात्र (केवळ अनुमानथी ज जणावायोग्य) नथी एवा अर्थनी प्राप्ति थाय छे. -४.
जेने लिंगथी ज परनुं ग्रहण थतुं नथी ते अलिंगग्रहण छे; आ रीते आत्मा अनुमातामात्र (केवळ अनुमान करनारो ज) नथी एवा अर्थनी प्राप्ति थाय छे. -प.
लिंग द्वारा नहि पण स्वभाव वडे जेने ग्रहण थाय छे ते अलिंगग्रहण छे; आ रीते आत्मा प्रत्यक्ष ज्ञाता छे एवा अर्थनी प्राप्ति थाय छे.” -६.