जुओ, आ छठ्ठा बोलमां स्वभाव वडे जेने ग्रहण थाय छे एवो आत्मा प्रत्यक्ष ज्ञाता छे एम कह्युं छे. अहा! आवो आ वीतरागनो मार्ग छे. पण अरेरे! सर्वज्ञ परमेश्वरना विरह पडया, ने बहारमां घणी बधी गरबड उभी थई गई! अहीं कहे छे-इन्द्रियप्रत्यक्ष के इन्द्रियप्रत्यक्षपूर्वक अनुमान वडे जाणवामां आवे एवो आत्मा नथी. तेम ज पोते इन्द्रियथी के अनुमानथी परने जाणे एवो पण आत्मा नथी. अहाहा...! पोताना स्वभाव वडे जाणवामां आवे एवो प्रत्यक्ष ज्ञाता प्रभु आत्मा छे. अहीं आ १२मी शक्तिना वर्णनमां आ ज वात करी छे के- आत्मा पोते ज पोताना स्वसंवेदनमां प्रत्यक्ष थाय एवो तेनो प्रकाशस्वभाव छे. अहाहा...! इन्द्रियोथी नहि, रागथी नहि, पण पोताना स्वभावथी जाणवामां आवे एवो आत्मा प्रत्यक्ष ज्ञाता छे-एवा अलिंगग्रहणना छठ्ठा बोल साथे अहीं मेळ छे. समजाणुं कांई...!
अहा! आ प्रकाशशक्तिमां एवुं अचिन्त्य दिव्य सामर्थ्य छे के कोई पर-निमित्तनी अपेक्षा विना ज ते पोताना ज स्वसंवेदन वडे आत्माने प्रत्यक्ष करे छे. अहा! आवी दिव्यशक्ति संपन्न निज आत्माने अंतर्मुख थई देखे तो द्रव्यद्रष्टि उघडी-खीली जाय. भाई! तारा आत्मानो अपार-अनंतो वैभव देखवो होय तो तारां दिव्यचक्षु याने द्रव्यचक्षु खोल; आ बहारनां चामडानां चक्षु वडे ए नहि देखाय, ने अंदर रागनां चक्षु वडे पण ए नहि देखाय; अंतरनां स्वभावचक्षु वडे ज ते जणाशे-अनुभवाशे. समजाणुं कांई...? ए तो टीका प्रारंभ करतां मंगलाचरणमां ज आचार्यदेवे कह्युं के-
एम के-पोते पोतानी अनुभूतिथी प्रकाशमान छे एवा समयसार नाम शुद्ध आत्माने नमस्कार. अहाहा...! निमित्त के व्यवहारना आलंबन विना ज, आत्मा सच्चिदानंद प्रभु स्वयं पोताना स्वभावथी ज स्वानुभूतिमां प्रकाशे छे.
भाई! आ तो तने त्रिलोकीनाथ केवळी परमात्मानां वेण अने कहेण आव्या छे; तेनो नकार न कराय. लौकिकमां पण एम होय छे के-दीकरानी सगाई करवानी होय ने दस-वीस घरनां नाळियेर आव्यां होय तो तेमांथी जे मोटा घरनुं कहेण होय ते स्वीकारी ले छे. तो आ तो केवळी सर्वज्ञ परमात्मानां सर्वोच्च घरनां कहेण बापु! तेनो झट स्वीकार कर, ना न पाड प्रभु! मुक्ति-सुंदरी साथे तारां सगपण करवानां कहेण छे. आनंदधनजीना एक पदमां आवे छे के-
अहा! पण समकित साथे सगाई कयारे थाय? के स्वभावसन्मुख थई आत्माने स्वसंवेदनथी प्रत्यक्ष जाणे त्यारे. आ सर्वज्ञ परमात्मानी दिव्यध्वनिमां आवेलां कहेण छे. अहो! आ तो जन्म-मरणना रोगनुं निवारण करनारी भगवान केवळीए कहेली परम अमृतमय औषधि छे.
वळी त्यां (-प्रवचनसारमां) अलिंगग्रहणना सातमा बोलमां कह्युं छे के-“जेने लिंग वडे एटले के उपयोग नामना लक्षण वडे ग्रहण एटले के ज्ञेय पदार्थोनुं आलंबन नथी ते अलिंगग्रहण छे; आ रीते आत्माने बाह्य पदार्थोना आलंबनवाळुं ज्ञान नथी एवा अर्थनी प्राप्ति थाय छे.” जुओ, कहे छे-आत्माना उपयोगमां परपदार्थ- परज्ञेयनुं आलंबन नथी. भाई! तारी शक्ति स्वयं प्रकाशमान स्वसंवेदनमय स्वरूप जेनुं छे एवी छे; तने कयांय परावलंबन नथी.
पण ए (स्वसंवेदन) कठण थई पडयुं छे ने? हा, ए तो कळशटीकाना ६०मा कळशमां कह्युं छे के-“सांप्रत (हालमां) जीवद्रव्य रागादि अशुद्ध चेतनारूपे परिणम्युं छे त्यां तो एम प्रतिभासे छे के ज्ञान क्रोधरूप परिणम्युं छे तेथी ज्ञान भिन्न, क्रोध भिन्न-एवुं अनुभववुं घणुं ज कठण छे. उत्तर आम छे के साचे ज कठण छे, परंतु वस्तुनुं शुद्धस्वरूप विचारतां भिन्नपणारूप स्वाद आवे छे.”
भाई! स्वभावनो अनुभव करवो कठण तो छे, पण अशकय नथी, असंभव नथी. घणुं कठण लागे छे, केमके अनंत काळथी भेदज्ञाननो अभ्यास नथी. पण वस्तुस्वरूप विचारतां-ध्यावतां भिन्नपणारूप स्वाद आवे छे, अशकय नथी. अहा! पोताना स्वभावनी प्राप्ति पोताने अशकय केम होय? ए तो त्यांसुधी ज प्राप्त नथी ज्यां सुधी स्वभावनी द्रष्टि करतो नथी. ज्यां अंतर-द्रष्टि करे के तत्काल आत्मा स्वसंवेदनमां प्रत्यक्ष थाय छे. हवे जीवोए अभ्यास कर्यो नथी, अने आ पद्धतिनो वर्तमानमां बहु लोप छे तेथी पोतानी चीज प्राप्त थवी कठण थई पडी छे. पण मारग तो आवो छे प्रभु! थोडुं कह्युं झाझुं करी जाणवुं बापु!
अहाहा...! भगवान आत्मा अनुभवमां-स्वानुभवमां प्रत्यक्ष थाय एवी एनी शक्ति छे. अहा! अनंत गुण-स्वभावोमां प्रकाशशक्ति व्यापक छे; जेथी ज्ञान प्रत्यक्ष, दर्शन प्रत्यक्ष, सुख प्रत्यक्ष, वीर्य प्रत्यक्ष-एम दरेक शक्ति