Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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७४ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११ प्रत्यक्ष थाय एवुं ज एनुं स्वरूप छे. अहाहा...! भगवान! तारा घरमां अनंत चैतन्यलक्ष्मी भरी छे. तारो आत्मा प्रत्यक्षपणे आनंदनुं वेदन करे एवी तारामां लक्ष्मी भरी छे. भाई! तारी आवी स्वरूपलक्ष्मी छे तेनी हा तो पाड; हा पाडीश तो तेनी लत लागशे अने ‘हालत’ प्रगट थई जशे. अहा! आ तो-

“सहेजे समुद्र उलसियो, एमां मोती तणातां जाय;
भाग्यवान कर वावरे, एनी मूठियुं मोतीए भराय.”

अहा! हा पाडी अंतःपुरुषार्थ करे तेने रत्नत्रयनी प्राप्ति थाय. पण रागथी थाय ने निमित्तथी थाय ने व्यवहारथी थाय एम विचारी अंतःपुरुषार्थहीन-भाग्यहीन रहे तेने आत्मा प्रत्यक्ष थतो नथी, तेने तो चार गति ज ऊभी रहे छे. कह्युं छे ने के-

“भाग्यहीन कर वावरे एनी मूठियुं शंखले भराय.”

आवी वात छे. आ कोई संप्रदायनी वात नथी, आ तो वस्तुना घरनी वात छे.

आ बारमी प्रकाशशक्तिमां गजबनी वात करी छे. पोतानो ज्ञाननो अने आनंदनो स्वभाव छे तेनुं स्वयं प्रत्यक्ष संवेदन थाय, अरे, अनंत गुणोनुं प्रत्यक्ष वेदन थाय एवो प्रकाशशक्तिना सामर्थ्यनो अचिंत्य महिमा छे. शुं कहीए? जेटलुं अंतरमां भासे छे तेटलुं भाषामां आवतुं नथी, केमके भाषानुं परिणमन स्वतंत्र छे, अने तेनी कहेवानी शक्ति मर्यादित छे.

दिव्यध्वनिमां जे निरूपण आवे छे ते भगवानने केवळज्ञान छे माटे आवे छे एम नथी. वाणी छूटे छे ते तो वाणीनुं उपादान छे, ने ज्ञान अने योग तो तेमां निमित्तमात्र छे. जुओ, भाषावर्गणा (परिणमन) चार प्रकारे छे; सत्यभाषा, असत्यभाषा, मिश्रभाषा ने व्यवहारभाषा. आ चार प्रकारनी वचनवर्गणा भिन्न भिन्न छे. हवे भगवानने तो एकलुं केवळज्ञान छे, तो भाषामां एकली सत्यभाषा नीकळवी जोईए; पण भाषामां सत्य अने व्यवहार-एम बे प्रकारे वाणी आवे छे. केवळज्ञानमां कोई व्यवहार नथी. परंतु भाषामां योग्यता ज एवी छे के सत्य अने व्यवहार बन्नेने ते बतावे. आम भाषानी पर्याय पोते पोताथी स्वतंत्र परिणमे छे. तेमां ज्ञान निमित्त हो, पण निमित्त तेनुं कर्ता नथी, भाषावर्गणानी पर्यायनो कर्ता आत्मा नथी, भगवान केवळी नथी; केवळीना योगनुं कंपन छे ते पण भाषावर्गणानी पर्यायनो कर्ता नथी. भाषावर्गणा जड छे ते स्वयं स्वतंत्र जे काळे जेम परिणमवायोग्य होय तेम ते काळे परिणमी जाय छे, प्रयोग करीने आत्मा तेने परिणमावी दे एम त्रणकाळमां छे नहि.

भाषामां स्व-परने कहेवानी ताकात छे, ने आत्मामां स्व-परने जाणवानी ताकात छे. मार्ग तो जुओ प्रभुनो! द्रव्यमां पर्याय पोताथी स्वतंत्र प्रगट थाय छे. वाणीमां स्व-परने जाणवानी ताकात नथी, ने आत्मामां स्व-परने कहेवानी ताकात नथी. आम वस्तुस्थिति छे, छतां हुं वाणी करुं एम कोई माने तो ते मूढ ज छे. अरे भाई! आ बहारनी लक्ष्मी, मकान, शरीर, मन, वाणी इत्यादि मारां छे एम माने ए तो भ्रान्ति छे, मिथ्या भ्रम छे, पाखंड छे. अरे, आ रागनो अंश पण ज्यां तारो नथी तो ताराथी त्रिकाळ भिन्न एवी परचीज तारी कयांथी थई गई? परचीजनुं तो क्षेत्र ज भिन्न छे ने प्रभु!

समवशरणमां जीव अनंत वार गयो, ने त्यां भगवाननी दिव्यध्वनि अनंत वार सांभळी. त्यां वाणी सांभळीने जे ज्ञाननी पर्याय प्रगट थई ते पोताथी थई छे, वाणीना कारणे थई छे एम नथी. भले ते परलक्षी ज्ञान हो, पण वाणीथी ते परलक्षी ज्ञान थयुं छे एम नथी; परलक्षी ज्ञानेय पोताना उपादानथी थाय छे. हा, एटलुं छे के परलक्षी ज्ञानमां आत्मा प्रत्यक्ष थतो नथी. जुओ, लोको कयांय दूरदूरथी आ वात सांभळवा आवे छे. अमे तो परमात्मानी दिव्यध्वनिमां आवेली आ वात फरमावीए छीए के-आ ज्ञान थयुं ते शास्त्र-श्रवणथी थयुं नथी, पोताथी थयुं छे. श्रवणना निमित्ते थयेली ज्ञाननी पर्यायमां, ते पोताथी थई छे तोपण तेमां पराश्रयपणुं छे तेथी, आत्मा प्रत्यक्ष थतो नथी. जेमां आत्मा प्रत्यक्ष थतो नथी ते एकलुं परलक्षी ज्ञान, ज्ञान ज नथी; ए तो मिथ्याज्ञान छे. परंतु कोई परमात्मानी वाणी सांभळीने, शक्तिवान निज द्रव्यने विचारे छे, ध्यावे छे तो तेने द्रव्य-गुणमां जे अनादिकालीन शक्ति छे तेनुं पर्यायमां परिणमन थईने आत्मा स्वसंवेदनमां प्रत्यक्ष थाय छे, अने त्यारे वाणीने निमित्त कहेवाय छे. आवी वात छे.

आमां ‘स्वयं’ ने ‘विशद’ ए बे शब्दो पर खास वजन छे. आत्मा कोईनी अपेक्षा रहित स्वयं प्रकाशमान छे, अने विशद एटले स्पष्ट, प्रत्यक्ष स्वसंवेदन थईने आत्मा जाणवामां आवे छे. भाई! धीरे धीरे आ विषय समजवो