Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 3994 of 4199

 

१२-प्रकाशशक्तिः ७प

बापु! आ तो भगवाननी दिव्यध्वनिनो सार छे. अहो! आचार्य भगवंतोए वनमां वसीने केवां अजब काम कर्यां छे! जुओ, मूळ गाथाओ श्री कुंदकुंदाचार्यदेवे बे हजार वर्ष पर रची छे, ने तेना एक हजार वर्ष पछी तेनी टीका आचार्य श्री अमृतचंद्रसूरिए बनावी छे. अहो! दिगंबर मुनिवरो! जाणे हालता-चालता सिद्ध! निज एक ज्ञायकभावमां जेमणे उपयोगनी-शुद्धोपयोगनी उग्र जमावट करी छे अने जेओ प्रचुर स्वसंवेदनमां मस्त, निजानंदरसमां लीन रहेनारा छे एवा योगीवरोए आ दिव्य शास्त्र रच्युं छे.

एम शुद्धोपयोग तो चोथा गुणस्थानथी होय छे, परंतु शुद्धोपयोगनी जेवी उग्र जमावट मुनिवरोने होय छे तेवी समकितीने चोथे गुणस्थाने होती नथी. मुनिराजने तो त्रण कषायना अभाववाळी शुद्धोपयोगनी तीव्र लीनता होय छे. तथापि सम्यग्द्रष्टिने चोथे गुणस्थाने गृहवासमां रहेवा छतां आत्मा स्वसंवेदनप्रत्यक्षथी अनुभवमां आवे एवी आत्मानी आ प्रकाशशक्ति छे. आ न्यायथी-युक्तिथी वात छे. चोथे गुणस्थाने समकिती कहे छे-मारा आत्माना स्वसंवेदन-प्रत्यक्षथी हुं मने अनुभवुं छुं. अहो! आ स्वसंवेदन अचिंत्य महिमायुक्त छे, तेमां अनंत गुणोनो रस समाय छे, तेमां अतीन्द्रिय आनंद झरे छे, स्वरूपनी प्रतीति प्रगटे छे, अने अनंत शक्तिओ निर्मळपणे उछळे छे. अहो! आ स्वसंवेदन तो मोक्षनां द्वार खोलवानो रामबाण उपाय छे.

समकिती चक्रवर्ती भले छ खंडना राज्यमां बहारथी देखाय, पण खरेखर ते राज्यनो स्वामी नथी. ४७ शक्तिमां छेल्ली स्व-स्वामित्वमयी संबंधशक्ति छे. अहाहा...! शक्तिनुं परिणमन थयुं छे एवो समकिती, ज्ञानी चक्रवर्ती छन्नु हजार राणीओना वृंदमां देखाय तो पण ते पोताना द्रव्य-गुण अने स्वसंवेदननी निर्मळपर्याय जे तेने प्रगट थई छे तेनो ते स्वामी छे, रागनो-विकल्पनो स्वामी नथी. हवे रागनो स्वामी नथी तो पछी राज्यनो, परनो के स्त्रीनो स्वामी होय ए वात कयां रही?

अहा! आ प्रकाशशक्तिनुं बीजी अनंत शक्तिओमां रूप छे. तेथी ज्ञान, श्रद्धा, आनंद वगेरे प्रत्यक्ष थाय एवुं एनुं स्वरूप छे. अहो! आ तो मोटो भंडार भर्यो छे, जेनो पार न आवे एवी आ वात छे. एकेक शक्तिमां केटलुं भर्युं छे! एक ‘जगत’ शब्द लईए एमां केटलो विस्तार भर्यो छे? अहाहा...! छ द्रव्य, एना गुण, एनी पर्याय, त्रण काळ, अनंता सिद्ध, अनंता निगोदराशि, अनंताअनंत पुद्गलो... ओहोहोहो...! ‘जगत’ शब्दे केटलुं बधुं आवे! हवे ए जगतने जाणनार ज्ञानना सामर्थ्यनुं शुं कहेवुं? आम एकेक शक्तिनो घणो अपरिमित विस्तार छे. (मात्र प्रत्यक्ष अनुभवमां ज पार पमाय एम छे.)

द्रव्यसंग्रहनी ४७मी गाथामां श्री नेमिचंद्र सिद्धांतचक्रवर्तीदेव कहे छे-निश्चय अने व्यवहार मोक्षमार्ग ध्यानमां प्रगट थाय छे.

दुविहं पि मोक्खहेउं झाणे पाउणदि जं मुणी णियमा।
तम्हा पयत्तचित्ता जूयं झाणं समब्भमसह।।
४७।।

धर्मीपुरुष स्वरूपमां ज्यारे उपयोग लगावे त्यारे ध्यान थाय छे. ध्यान ते ज शुद्धोपयोग छे. ज्ञायकनुं ध्यान लगावतां आत्मा ज्ञानमां प्रत्यक्ष थाय छे, अनुभवमां आवे छे. मति-श्रुतज्ञानमां आत्मा प्रत्यक्ष छे.

प्रश्नः– मति-श्रुतज्ञानने तमे प्रत्यक्ष कहो छो, परंतु तत्त्वार्थसूत्रमां ‘आद्ये परोक्षम्’ आरंभनां बे अर्थात् मति-श्रुतज्ञान परोक्ष छे एम कह्युं छे. तो आ केवी रीते छे?

उत्तरः– तत्त्वार्थसूत्रमां मति-श्रुतज्ञानने परोक्ष कह्यां छे ते तो परने जाणवानी अपेक्षाए परोक्ष कह्यां छे, पोताने जाणवानी अपेक्षाए तो मति-श्रुतज्ञान प्रत्यक्ष छे. आ वात एमां गर्भित छे. व्यवहारमां जेम कहे छे ने के- आ माणसने में प्रत्यक्ष जोयो छे, तेम भगवान आत्मा स्वसंवेदनज्ञानमां स्पष्ट स्वयं प्रकाशमान थाय छे. श्रुतपर्याय अंतरमां वळीने ज्यां चैतन्यस्वरूपने ध्येय बनावे छे त्यां तेनुं प्रत्यक्ष स्वसंवेदन थाय छे. स्वानुभवमां आत्मा स्वयं प्रगट थाय छे.

में राजाने प्रत्यक्ष जोयो एम कहेवुं ते व्यवहारप्रत्यक्ष छे. परनुं ज्ञान पण जेने स्वरूपग्राही सत्यार्थ ज्ञान होय तेने साचुं होय छे. आ देव छे, आ गुरु छे, आ शास्त्र छे-एवुं परसंबंधीनुं ज्ञान तेने साचुं होय छे जेने स्वनुं भान छे. जेने स्वनुं ज्ञान थयुं नथी तेने परनुं ज्ञान ते ज्ञान नथी, ए तो एकांत परप्रकाशक ज्ञान छे.

वर्षो पहेलां संप्रदायमां अमे कह्युं हतुं के-स्वानुभव करो, स्वानुभव करवो जोईए. स्वानुभव मुख्य छे.