७६ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११
त्यारे एक भाई कहे-आ स्वानुभवनी वात कयांथी काढी? अमारा गुरुए तो आवुं कदी कह्युं नथी. अरे भाई! स्वानुभवप्रत्यक्ष आत्मद्रव्य छे; परोक्ष रहे एवो एनो स्वभाव नथी. आत्मानो अनुभव प्रत्यक्ष थाय छे. स्वानुभव काळे आत्मा पोताना द्रव्य-गुण-पर्यायमां तन्मय थयो थको पोते पोताने स्पष्ट प्रत्यक्ष वेदे छे, ने आनुं नाम सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने धर्म छे. मति-श्रुतज्ञानमां आ रीते आत्मा प्रत्यक्ष वेदनमां-जाणवामां आवे छे.
ओहो! अंदर तो जुओ! भगवान आत्मानी शक्ति अपरिमित अपार छे. आ प्रकाशशक्तिनां बे रूप-एक ध्रुवरूप ते ध्रुव उपादान, अने परिणति प्रगटे ते क्षणिक उपादान छे. अहीं शक्ति ने शक्तिनी निर्मळ व्यक्तिनी वात छे. ध्रुव पण स्वानुभूतिनी पर्यायमां प्रत्यक्ष जाणवामां आवे छे.
समयसार कळशटीका, कळश ६०मां कह्युं छे के-वस्तुना शुद्ध स्वरूपनो विचार करतां अर्थात् ध्यावतां भिन्न आत्मानो अनुभव थईने अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद आवे छे. एकला राग अने पुण्य-पापनो विचार करे ए तो परप्रकाशक मिथ्याज्ञान छे. राग अने पर्याय प्रति तो अनादिथी झुकी रह्यो छे. अहा! ते तरफनुं लक्ष छोडी ज्ञानने पोताना शुद्धस्वरूप सन्मुख झुकाववाथी ते ज्ञाननी दशामां आत्मा प्रत्यक्ष थाय छे, अने अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद आवे छे.
भाई! तारा आत्मानो प्रकाशस्वभाव छे तेमां परोक्षपणानो अभाव छे. समकितीने आत्मस्वभावनुं अंशे प्रत्यक्ष स्वसंवेदन प्रगट थयुं होय छे. तेने साधकदशामां पूर्ण प्रत्यक्षज्ञान प्रगटयुं नथी, ने परोक्षज्ञान पण वर्ते छे. स्वरूपना उग्र आलंबने जेम जेम तेने आत्मानुं प्रत्यक्ष स्वसंवेदन वधतुं जाय छे तेम तेम परोक्षपणुं छूटतुं जाय छे ने अंते परोक्षपणानो सर्वथा अभाव थई पूर्ण प्रत्यक्षज्ञान-केवळज्ञान प्रगट थाय छे; आ प्रकाशशक्तिनी परिपूर्ण प्रगटता छे जेमां एकली पूर्ण प्रत्यक्षता ज छे. आ रीते-
-अज्ञानीने सर्वथा परोक्ष ज ज्ञान होय छे, -समकितीने, साधकने अंशे प्रत्यक्ष स्वसंवेदन होय छे, ने साथे क्रमे अभावरूप थतुं परोक्षपणुं पण होय छे, ने -केवळीने सर्वप्रत्यक्षपणुं-पूर्ण प्रत्यक्षपणुं होय छे. आवी वात!
भाई! गुप्त रहे एवुं आत्मानुं स्वरूप ज नथी. पण तने अनंतशक्तिसंपन्न निज आत्मद्रव्यनो विश्वास आवे त्यारे ने? लोकोमां कहेवाय छे के विश्वासे वहाण तरे. तेम तुं अनंतगुणधाम निज आत्मद्रव्यनो विश्वास लावी अंतर्मुख था, तेम करवाथी आत्मानुं वहाण तरीने पार उतरी जशे. अहा! आ अनंत जन्म-मरणना अंत करवानी वात बापा! बाकी दया, दान आदि भावना फळमां तो तुं भवभ्रमण करशे. दया, दान आदि भाव वडे कदाच तुं स्वर्गे जईश तो त्यां पण सम्यग्दर्शन विना दुःखी ज थईश अने मरीने अंते नर्क-निगोदमां चाल्यो जईश.
भाई! स्वर्गना भव पण ते अनंत कर्या छे. अने त्यांथी नीकळी भवभ्रमणमां तुं निगोदमां उपज्यो त्यां पण अनंत भव कर्या, स्वर्ग करतां एकेन्द्रियमां असंख्यगुणां अनंता भव जीवे कर्या छे. एक श्वासमां अढार भव निगोदमां थाय छे. आवा अनंत अनंत भव निगोदमां कर्या छे. अहा! आवा भवना दुःखथी मुक्त थवुं होय तो अनंत शक्तिवान एवा ध्रुव निज आत्मद्रव्यमां द्रष्टि लगाडी दे. शक्ति अने शक्तिवान एवा भेदनुं पण लक्ष छोडी त्रिकाळी द्रव्यमां द्रष्टि कर, तेथी तारा ज्ञानपर्यायमां आत्मा प्रत्यक्ष थशे. स्वसंवेदनमां स्वयं आत्मा प्रत्यक्ष थाय एवो ज एनो प्रकाशस्वभाव छे. समजाणुं कांई...? ल्यो, -
आ प्रमाणे प्रकाशशक्तिनुं वर्णन पूरुं थयुं.
‘क्षेत्र अने काळथी अमर्यादित एवा चिद्दविलासस्वरूप (-चैतन्यना विलासस्वरूप) असंकुचितविकासत्वशक्ति.
अहाहा...! ज्ञानस्वरूपी अनंतगुणसमुद्र प्रभु आत्मामां जेम ज्ञानादि छे तेम तेमां असंकुचितविकासत्व नामनी एक शक्ति छे. एटले शुं? के एना चैतन्यमां संकोच विना विकास थई ते पूर्ण विकसे-विलसे एवो एनो स्वभाव छे. अहाहा...! आत्मानो आवो स्वभाव एना अनंत गुणमां व्यापक छे; जेथी एनी प्रत्येक शक्ति-गुण संकोच विना पूर्ण