विकासरूप खीली उठे छे. अहा! एना द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भाव असंकुचित विकासमय छे. समजाय छे कांई...?
त्यारे कोई वळी कहे छे-भगवान केवळी द्रव्योनी वर्तमान वर्तती पर्यायने जाणे पण त्रिकाळवर्ती सर्व पर्यायोने न जाणे केमके एक समयनी वर्तमान पर्याय वर्ते छे, पण भूत-भविष्यनी पर्यायो वर्तमान वर्तती नथी. पण आ मान्यता बराबर नथी, केमके भगवान केवळीनी ज्ञानशक्ति संकोच रहित खीलीने एवी पूर्णज्ञानरूप- केवळज्ञानरूप थई छे के एक समयमां त्रणे काळनी समस्त पर्यायोने भगवान केवळी सर्वज्ञदेव प्रत्यक्ष जाणे छे. भगवान केवळी वर्तमान वर्तती एक समयनी पर्यायने ज देखे छे, ने भूत-भाविनी पर्यायोने देखता नथी एम छे ज नहि. एम माने एने चैतन्यनी शक्तिनी खबर ज नथी. भाई! आमां एक न्याय फरे तो एमां आखी वस्तु फरी जाय.
अहाहा...! आत्मानी ज्ञानशक्तिमां आ असंकुचितविकासत्वशक्तिनुं रूप छे. एमां असंकुचितविकासत्वशक्ति छे एम नहि, पण एमां असंकुचितविकासत्वशक्तिनुं रूप छे. जेम ज्ञानमां अस्तित्वनुं रूप छे तेम ज्ञानमां असंकुचितविकासत्वशक्तिनुं रूप छे; जेथी ज्ञाननी शक्तिमां संकोच विना पूरण विकास थाय छे अने त्रणकाळ त्रणलोकनी पर्यायोने संकोच विना एक समयमां जाणे छे. चैतन्यनो पूर्ण विलास थतां जाणवामां कोई क्षेत्रनी मर्यादा नथी के आटलुं ज क्षेत्र जाणे, वा काळनी कोई मर्यादा नथी के आटला काळनुं ज जाणे; त्रणकाळ सहित लोकालोकने मर्यादा विना एक समयमां प्रत्यक्ष जाणे एवो अपरिमित पूर्ण अनंत ज्ञानशक्तिनो विकास भगवान केवळीने थयो होय छे.
तत्त्वार्थसूत्रमां आवे छे के चार घातीकर्मोनो नाथ थवाथी केवळज्ञान प्रगट थाय छे. पण आ तो निमित्तथी कथन छे, ते यथार्थ निमित्तनुं ज्ञान कराववा माटे छे. वास्तवमां चार घातीकर्मोनो क्षय करवो ए आत्माना स्वरूपमां छे ज नहि. ए तो पोतानो एवो असंकुचितविकासत्व स्वभाव छे जे वडे जीव (-ज्ञान) पूर्ण विकासरूप थई केवळज्ञान प्रगट करे छे. पण अरेरे! अज्ञानी पामरने पोतानी प्रभुतानो महिमा बेसवो कठण पडे छे, एम के आवुं ते होय! पण अरे भाई! ज्ञानमां संकोच रहित पूर्ण विकास थाय एवुं असंकुचितविकासत्वशक्तिनुं रूप छे, दर्शनमां पण संकोच न रहे अने विकास थई जाय एवुं रूप छे, जेथी असंकोच-विकासरूप जे दर्शन ते सर्व द्रव्य-क्षेत्र-काळ- भावने पोताना विकासथी देखे छे.
आत्मानो अतीन्द्रिय आनंदनो स्वभाव छे. तेमां पण असंकुचितविकासत्वशक्तिनुं रूप छे, जे वडे आनंदस्वभाव कोई संकोच विना पूर्णानंदस्वरूपे परिणमे छे. वळी जीवमां अकषायस्वरूप चारित्र नामनो एक गुण छे, तेमां पण आ शक्तिनुं रूप छे, जेथी चारित्रनी पूर्ण रमणता-स्थिरता थई पूर्ण अकषायरूप चारित्र प्रगट थाय छे. जो के आ शक्तिना अधिकारमां चारित्र नामनी शक्ति जुदी वर्णवी नथी, पण सुखशक्तिमां श्रद्धा अने चारित्र ए बन्ने शक्ति समाडी दीधी छे. भगवान सिद्धना आठ गुणना वर्णनमां पण चारित्र गुण जुदो कह्यो नथी; सम्यग्दर्शन अने वीर्य गुणनुं कथन कर्युं छे त्यां श्रद्धामां चारित्रशक्ति समावी दीधी छे.
परमात्मप्रकाशमां एक द्रष्टांत आप्युं छे. वांसनो मंडप होय त्यां सुधी वेल मांडवा उपर चढे छे, पण वेलमां हजी उपर जवानी शक्ति तो भरी छे. मंडप वधारे ऊंचो होय तो वेल पण वधारे ऊंचे चढे एवी वेलमां पोताना कारणे (मंडपना कारणे नहि) शक्ति छे. तेम आ त्रणकाळ-त्रणलोकनो मंडप छे तेने केवळज्ञान एक समयमां जाणे छे. वळी एनाथी अनंतगुणा क्षेत्र ने काळ होय तो पण केवळज्ञान तेने जाणे एवी तेनी अनंत विकासरूप शक्ति छे. लोकालोक एक ज छे, पण एनाथी अनंतगुणा लोकालोक होय तो पण संकोच विना विकास थईने केवळज्ञान ते बधाने जाणी ले एवुं तेनुं स्वरूप छे. भाई! एक एक गुणनी एक एक पर्याय संकोच विना पूर्ण विकासरूप थई विलसे एवो आत्मानी असंकोच-विकासशक्तिनो स्वभाव छे. भगवान! अंदर तारुं स्वरूप तो जो.
पं. फूलचंदजीए ‘खानिया तत्त्वचर्चा’ ग्रंथमां आनुं सारुं स्पष्टीकरण कर्युं छे. भाई! वस्तुस्थिति ज आवी छे. अमे तो साक्षात् भगवान पासे सांभळ्युं छे. परंतु वात आवी सूक्ष्म छे एटले लोकोने बेसवी कठण पडे छे.
अहा! आत्मानुं ज्ञान प्रत्यक्ष थईने परिपूर्ण विकसित थाय एवो एनो असंकोच-विकास स्वभाव छे. पण ते पर्यायमां पूर्ण विकासरूप कयारे थाय? के त्रिकाळी प्रत्यक्ष परिपूर्ण एक ज्ञायकभावनो आश्रय करीने परिणमे त्यारे पर्यायमां पूर्ण विकास थाय छे. आ सिवाय जडनो के विकारनो आश्रय करीने लाभ माने तो पर्यायमां विकास न थाय, विकार थाय ने पर्याय संकोचरूप ज रहे. अहा! जीवनी पर्यायमां अनादिथी संकोच छे, ते संकोच टळीने संकोच रहित विकास केम थाय ते अहीं आचार्यदेव बतावे छे.