Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 3997 of 4199

 

७८ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११

अहा! प्रभु! तारामां जेटली अनंत शक्तिओ छे ते बधी संकोच विना विकास पामे एवो प्रत्येक शक्तिनो स्वभाव छे. जीवत्वशक्तिमां ज्ञान, दर्शन, आनंद अने सत्ता एवा चार भावप्राण छे; तेनो संकोच विना पर्यायमां विकास थाय एवो जीवत्वशक्तिनो स्वभाव छे. स्वशक्तिने स्पर्श करीने परिणमतां ज आत्मा स्वयं विकास पामे छे. अरे प्रभु! तुं अंदर जो तो खरो; तुं दीन नथी, भिखारी नथी, पामर नथी, अधुरो नथी. अहाहा...! अनंत अनंत प्रभुतानो स्वामी सर्व शक्तिथी भरपुर परमेश्वर छो ने प्रभु! अहाहा...! दिगंबर संतो तने प्रभु कहीने बोलावे छे ने! गाथा ७२नी टीका लखतां आचार्य अमृतचंद्रस्वामी तने ‘भगवान आत्मा’ कहीने पुकारे छे ने! अहो! अतीन्द्रिय आनंदना झुले झुलनारा विरागी दिगंबर संतो तारा आत्माने भगवान कहीने जगाडे छे. जाग नाथ! जाग. अंतर-प्रतीति करी अंतर-रमणता करतां तारामां (पर्यायमां) परमात्मपदनो विकास थशे.

प्रश्नः– हा, पण आप मुनिने मानता नथी ने? उत्तरः– अरे भाई! अमे तो दिगंबर संतो-महामुनिवरोना दासानुदास छीए. त्रण कषायना अभाववाळी अंतरंगमां अतीन्द्रिय शांति-आनंद प्रगटयां होय एवी मुनिदशा तो साक्षात् मोक्षमार्ग छे. अहा! आवी मुनिदशाने कोण न माने भाई? अहा! दिगंबर संत-मुनिवरोनी अंतर्बाह्य दशा कोई अद्भुत अलौकिक होय छे. पण बाह्य द्रव्यलिंगमात्र मुनिपणुं नथी. आगम प्रमाणे बाह्य व्रतादिनो साचो व्यवहार होय ते द्रव्यलिंग छे. पण आगम प्रमाणेनो साचो व्यवहारेय न होय त्यां शुं करीए? (भावलिंग तो दूर रहो). चोका लगावी पोताना माटे बनावेलो आहार ले एमां तो आगम प्रमाणेना चोख्खा व्यवहारनुं-द्रव्यलिंगनुंय ठेकाणुं नथी. भाई! कोईनो अनादर करवानी के कोईने दुःख लगाडवानी आ वात नथी, पण तारी चीज केवी छे, मोक्षमार्गनुं स्वरूप केवुं छे ते पोताने समजवा माटेनी आ वात छे.

वळी कोई कहे छे -दया, दान, व्रत, भक्ति आदि व्यवहार करतां करतां निश्चय थाय, पण तेनी ए मान्यता यथार्थ-सत्यार्थ नथी. वास्तवमां तेने त्रिकाळी द्रव्य अने द्रव्यनी शक्तिनी अंतरंग प्रतीति थई नथी. अहीं तो कहे छे -रागनी मंदतानी अपेक्षा विना ज पोताना अनंता गुणो संकोच विना पर्यायमां विकासरूपे परिणमे एवो एनो स्वभाव छे. अरे भाई! रागना अभावस्वरूप वीतरागतानी (-चारित्रनी) पूर्ण दशा प्रगट करे एवो आत्मानो स्वभाव छे, पण राग करे एवी तो आत्मानी कोई शक्ति नथी. पूर्ण विकासपणे शक्ति स्वयं परिणमे छे त्यां व्यवहार करतां करतां निश्चय थाय ए वात ज कयां रहे छे? अहो! आ तो आचार्य अमृतचंद्रदेवे अमृतना दरिया भरी दीधा छे.

अहा! चैतन्यरूप अमृतनो सागर प्रभु तुं आ मृतक कलेवरमां कयां मूर्च्छाई गयो? समयसार, गाथा ९६नी टीकामां आवे छे के-अमृतसागर प्रभु आत्मा मृतक कलेवरमां मूर्च्छाई गयो छे. अरे भाई! जेनी तुं रातदिन सेवा ने आळपंपाळ करे छे ते आ शरीर तो जड, अचेतन, मृतक कलेवर छे; एमांथी बळीने राख नीकळशे, पण एमांथी विकसीने केवळज्ञान नहि नीकळे. माटे देहनी ममता जवा दे, आ रूपाळा शरीरना आकारने देखवुं जवा दे, ते तारी चीज नथी. अंदर ज्ञान, आनंद आदि शक्ति त्रिकाळ पडी छे तेमां अंतर्मुख द्रष्टि कर अने तेनी ज सेवा कर; अहाहा...! तेथी ज्ञान ने आनंदनी दशानो विकास थई पूर्ण ज्ञान-केवळज्ञान अने पूर्ण आनंदनी प्रगटता थशे, अने आ जीवननुं नाव संसारसागर तरीने पार उतरी जशे.

अरे भाई! आ संकोचरूप अल्पज्ञ पर्याय ए कांई तारा आत्मानो स्वभाव नथी. अहाहा...! तारामां तो सर्वज्ञत्व अने सर्वदर्शित्व आदि शक्तिओ पडी छे; वळी तेनी पूर्ण विकासरूप सर्वज्ञ दशा अने सर्वदर्शी दशा प्रगट थाय एवो तारो असंकोचविकास स्वभाव छे. माटे आ अल्पज्ञ दशा अने रागनी दशा जे पामर चीज छे तेनी प्रतीति जवा दे. हुं अल्पज्ञ छुं, हुं रागी छुं-एवी प्रतीति जवा दे; ए तो मिथ्या प्रतीत छे भाई! एवी प्रतीति होता तारी संकोचदशा-हीनदशा केम मटशे? अने तने असंकोचविकास कयांथी प्रगटशे? अहाहा...! अंदर वस्तु पोताना पूर्ण बेहद स्वभावथी भरपुर छे एम विश्वास लावी तेमां तन्मय थई परिणमतां वस्तु असंकोचविकासरूप परिणमी जाय छे. आवो मारग छे बापु!

अहा! आत्माना स्वभावनी अंतर-द्रष्टि करवी अने पोतानी त्रिकाळी चीजना बेहद सामर्थ्यनो विश्वास करवो ए कोई अलौकिक चीज छे. अहाहा...! जेने क्षेत्र-काळनी कोई मर्यादा नथी एवी अमर्यादित ज्ञानशक्ति विकास पामीने सर्व लोकालोकने जाणवारूपे परिणमे छे. परमात्मप्रकाशमां जे मंडप अने वेलनुं द्रष्टांत आप्युं छे त्यां वेलमां मंडपथी आगळ जवानी शक्ति नथी एम नथी, तेम लोकालोक छे एनाथी अनंतगुणो होय तो पण ज्ञाननी दशा पूर्ण विकासरूपे