परिणमीने तेने जाणी ले. अहा! जुओ, आ अरिहंतनुं स्वरूप! अहाहा...! जुओ, आत्मबागनो चिद्दविलास! लोको बागमां विलास करवा जाय छे ने! मुंबईमां फूलझाडना मोटा बगीचा छे, लोको सांजना त्यां हवा खावा जाय छे. ए भाव तो पापरूप छे. आ तो चैतन्यविलासस्वरूप आत्मबागमां अनंत शक्तिओ अमर्यादित विकास पामीने निर्मळ- निर्मळ आनंद आपती परिणमे छे एनी वात छे.
अहाहा...! संकोच न रहे अने पूरण बेहद विकास थई जाय एवी जीवनी शक्ति छे. ज्ञान, दर्शन, आनंद, वीर्य, अस्तित्व, वस्तुत्व, कर्ता, कर्म इत्यादि एकेक शक्ति छे ते संकोच विना अपरिमित विकासरूपे परिणमे एवो भगवान आत्मानो स्वभाव छे. जेम परमाणुमां अनंतगुण लीली, लाल आदि पर्याय थाय छे ते पोताना कारणे थाय छे, तेमां परनुं कारण बीलकुल नथी; तेम भगवान आत्मामां अनंतज्ञान, अनंतसुख, अनंतवीर्य आदि पर्याय उत्पन्न थाय छे ते पोताथी थाय छे, तेमां परनुं रंचमात्र पण कारण नथी. अरे भाई! एक समयमां त्रणकाळ सहित लोकालोकने पूर्ण जाणे, तेनी भूत अने भविष्यनी पर्यायोने पण वर्तमानवत् प्रत्यक्ष जाणे तेने सर्वज्ञ कहेवामां आवे छे. अहाहा...! सर्वज्ञ एटले शुं? ए तो शक्तिनी अमर्यादित असंकुचितविकासरूप अवस्था छे. समजाय छे कांई...?
अरे प्रभु! केवी केवी (-महा आश्चर्यकारी) शक्तिओनो भंडार प्रभु तुं छो तेनी खबर करवाने बदले तुं बीजे क्रियाकांडमां रोकाई गयो! अहा! अनंत अमर्यादित महिमावंत एवी पोतानी चीजना भान विना आ तारा व्रत, तप आदि कांई कामना नथी. निर्जरा अधिकारमां आचार्य भगवाने पोकारीने कह्युं छे के-अज्ञानी जीव आत्माना भान विना व्रतादि क्लेश करे तो करो, पण ते वडे तेने संसारनो नाश थतो नथी.
अरे भाई! तुं अल्पज्ञ रहे, अल्पदर्शी, अल्प वीर्यपणे अने अल्प आनंदपणे रहे एवो तारो स्वभाव नथी, पण भगवान! तुं पूर्णानंद प्रभु पूर्ण ज्ञानानंदनो दरियो छे, अहाहा...! अलौकिक चीज छो तुं प्रभु! अहा! आवुं भेदज्ञान करी अंदर अंतर्मुख वळी अवलोकतां सर्वज्ञत्व, सर्वदर्शित्व आदि अनंत शक्तिमां संकोच विना पूर्ण विकास थाय एवा निजस्वभावनी प्रतीति थाय छे. अहाहा...! आमां आ एक न्याय समजे तो बधा ज भाव समजाई जाय एवी वात छे. अहा! आ असंकुचितविकासत्वशक्ति द्रव्य-गुणमां तो त्रिकाळ व्यापक छे, अने स्वसन्मुखता वडे तेनो स्वीकार करतां ज ते पर्यायमां व्यापक थाय छे. अहाहा...! त्रिकाळी द्रव्य असंकोच विकासरूप, गुणो असंकोच विकासरूप अने तद्रूप-परिणत पर्याय पण असंकोच विकासरूप!! गजब वात, भाई!
हा, पण पूर्ण विकसित ज्ञाननी पर्याय पूर्ण लोकालोकने जाणे तेमां लोकालोक कारण छे के नहि? उत्तरः– ना, जराय नहि, ए तो निज अंतःपुरुषार्थना सामर्थ्यथी ज पूर्ण विकसित ज्ञाननी दशा लोकालोकने प्रत्यक्ष जाणी ले छे; तेमां लोकालोकनुं कांई ज कारणपणुं नथी. जो लोकालोक कारण होय तो लोकालोक तो अनादि छे अने तेथी केवळज्ञान-ज्ञाननी पूर्ण विकसित दशा-अनादि होवी जोईए. पण एम तो छे नहि, केमके केवळज्ञान तो जीवने नवुं सादि प्रगटे छे. तेथी स्पष्ट थाय छे के लोकालोक ज्ञाननुं कारण नथी; वळी ते ज्ञाननुं कार्य छे एम पण नथी.
अहा! ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि अनंती शक्तिओ असंकुचित विकासने प्राप्त थाय एवो आत्मानो स्वभाव छे अने ते स्वसन्मुखतारूप अंतःपुरुषार्थ वडे सिद्ध थाय छे. आवो मारग छे; आ सिवाय बधुं थोथेथोथां छे. समजाणुं कांई...? ल्यो,
आ प्रमाणे असंकुचितविकासत्वशक्तिनुं वर्णन पूरुं थयुं.