८२ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११ एकला द्रव्यनी वात छे; एम के पर्याय तो नवी नवी उपजे छे माटे तेमां तो परनुं कार्य-कारणपणुं होय.
अरे भाई! तारी आ मान्यता जूठी छे, केम के द्रव्यनी अकार्यकारणत्वशक्ति द्रव्य-गुण-पर्याय त्रणेमां व्यापे छे. जेम द्रव्य अन्यथी कराय नहि, गुण अन्यथी कराय नहि तेम तेनी प्रत्येक पर्याय पण परथी कराती नथी. अहाहा...! द्रव्य-गुण-पर्यायस्वरूप आखी वस्तु अहीं तो (परना) अकार्य-कारणमय सिद्ध करे छे. स्व-आश्रये जे आ सम्यग्दर्शननी पर्याय थई ते परथी (कर्मना उपशमादिथी) कराई नथी, तेम ते पर्याय परमां (कर्ममां) कांई करे छे एम नथी. अन्यनुं कार्य अन्य वडे कराय ए जैन सिद्धांत नथी, अहा! आ केवळज्ञान थयुं तो मोक्षमार्ग कारण अने केवळज्ञान तेनुं कार्य एम नथी, केम के केवळज्ञाननी पर्यायमां अकार्यकारणत्वशक्ति व्यापी छे. (अहीं पूर्व पर्याय वर्तमान केवळज्ञाननी दशानुं पर छे). हवे आम छे त्यां मनुष्यपणुं अने उत्तम संहनन छे माटे केवळज्ञान प्रगट थयुं ए वात कयां रही? ए तो बधां निमित्तनां कथन बापु! हवे आवी सूक्ष्म वात लोकोने कठण पडे छे, परंतु आ न्यायथी-लोजीकथी सिद्ध सत्य वात छे.
अहा! आत्मानी प्रत्येक शक्तिमां आ अकार्यकारणस्वभावनुं रूप छे. चारित्रनी निर्मळ पर्याय ज्यारे उत्पन्न थाय छे त्यारे द्रव्यना आश्रये ते उत्पन्न थाय छे. तेथी पोताना द्रव्यना आश्रयथी (कारणपणाथी) चारित्रदशा प्रगट थई एम कहीए, पण ए व्यवहार छे, केमके खरेखर तो चारित्रनी पर्यायनुं कारण ते पर्याय पोते छे. ते पर्याय पोते ज षट्कारकरूप परिणमीने ते-रूपे थई छे. हवे आवी वात छे त्यां व्यवहार रत्नत्रयनो राग कारण अने चारित्रनी निर्मळ पर्याय प्रगटी ते कार्य एम कयां रह्युं? एम छे ज नहि. समय-समयनी निर्मळ पर्याय प्रगट थाय छे ते शक्तिना कारणे प्रगटे छे एम कहीए ते पण व्यवहार छे, अहाहा...! एक समयमां सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप निर्मळ निराकुळ आनंदनी अनुभूतिनी दशा प्रगटी ते दशा-पर्यायना सामर्थ्यनुं शुं कहेवुं? अहाहा...! ते पर्याय निज सामर्थ्यथी ज स्वतंत्र प्रगट थई छे, ते अन्यनुं कार्य नथी, अन्यनुं कारण पण नथी. अनुभवनी निर्मळ दशा थवा पहेलां शुभभाव हतो तो अनुभूतिनी दशा प्रगटी छे एम नथी. समजाणुं कांई...?
अहाहा...! ज्ञानमां, दर्शनमां, आनंदमां, चारित्रमां, वीर्यमां-एम प्रत्येक गुणमां अकार्यकारणपणानो स्वभाव छे. गुण प्रगटे तेमां परनुं कार्यकारणपणुं किंचित् नथी. आ अंतःपुरुषार्थ जागृत थाय तेमां परद्रव्य (देव-गुरु-शास्त्र, कर्म आदि) नुं किंचित् कारणपणुं नथी. ‘भुदत्थमस्सिदो खलु सम्मादिट्ठी हवदि जीवो’-भूतार्थना आश्रये सम्यग्दर्शन प्रगट थाय छे एम कीधुं छे ने? पण ए य व्यवहार छे. अहा! सम्यग्दर्शन प्रगट थवामां जेम परद्रव्य कारण नथी. तेम पोताना द्रव्य-गुण पण खरेखर कारण नथी एवो पर्यायनो अकार्यकारण स्वभाव छे. आवी सूक्ष्म वात भाई!
अहा! आ अकार्यकारणस्वभाव जेने अंतरमां बेसी जाय तेनी शी वात! तेनी तो मति अने गति फरी (सुलटी) जाय. ‘हुं परनुं शुं करुं? कांई पण न करुं’-एम जाणतो ते परथी (परना करवापणाथी) हठी जाय छे अने स्व भणी वळी त्यां स्वस्वरूपमां ज लीन-स्थिर थाय छे; अने त्यारे मने मारा कार्य (सम्यग्दर्शनादि) माटे परनी कोई ओशियाळ-अपेक्षा नथी एवी तेने निर्मळ प्रतीति थाय छे. ल्यो, आवो स्वाधीनतानो मारग अने आ धर्म! बाकी अज्ञानी जीवो अनादिकाळथी परमां पोतानुं कार्यकारणपणुं मानी स्वकार्य माटे परना ओशियाळा थई परमां ज प्रवर्ते-रमे छे, पण ए तो संसारमां रझळवानो दुःखनो पंथ बापु! ए मिथ्या पंथ भाई! माटे पर विना मने न चाले अने परनां काम हुं करी दउं ए वात जवा दे भाई! ए भ्रम छोडी परथी खसी स्वमां सावधान था, ने स्वमां वस; केम के तारे सदाय पर वगर ज चाली रह्युं छे, अने परनां काम कदीय तुं करे एवुं तारुं स्वरूप ज नथी. अहो! आत्मानो अकार्यकारणस्वभाव कहीने आचार्यदेवे परथी भेदज्ञान करावी स्वाधीन सुखनो मार्ग बताव्यो छे. ल्यो, -
-आ प्रमाणे अकार्यकारणत्वशक्ति पूरी थई.
‘पर अने पोते जेमनां निमित्त छे एवा ज्ञेयाकारो तथा ज्ञानाकारोने ग्रहण करवाना अने ग्रहण कराववाना स्वभावरूप परिणम्य-परिणामकत्वशक्ति. (पर जेमनां कारण छे एवा ज्ञेयाकारोने ग्रहण करवाना अने पोते जेमनुं कारण छे एवा ज्ञानाकारोने ग्रहण कराववाना स्वभावरूप परिणम्य-परिणामकत्वशक्ति)’.