८४ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११ एम पण नहि (एवो ज्ञेयोनो ने तारो स्वभाव नथी); परंतु द्रव्य-गुण-पर्यायरूप अनंता ज्ञेयो पोताना ज्ञानमां प्रमाणमां ग्रहण थाय अने स्व-पर प्रमाणज्ञानमां पोताना ज्ञानाकारो प्रमेयपणे जणाय एवो भगवान आत्मानो स्वभाव छे. गजब वात छे भाई! अनंता सिद्ध भगवंतो अने अरिहंतो वगेरेने पोते पोताना ज्ञानमां जाणे तथा अनंता सिद्ध भगवंतो अने अरिहंतो वगेरेना ज्ञानमां पोते-पोताना ज्ञानाकारो-प्रमेय थई जणाय एवो पोतानो- आत्मानो स्वभाव छे. भगवान! तारा आवा स्वभाव-सामर्थ्यने जाण्या विना तुं अनंतकाळ चार गतिमां रझळी मर्यो छे. जो तारा स्वभाव-सामर्थ्यनो महिमा तुं समजे-स्वीकारे तो संसार-परिभ्रमणना दुःखनो अंत आवे एवी आ वात छे. अहाहा...! तारी एकेक पर्यायमां स्व-परनुं ज्ञान करवानी ने स्व-परनुं ज्ञेय थवानी अद्भूत शक्ति पडी छे. आ समजीने अंतर्मुख थाय तो ‘मने आत्मा केम जणातो नथी’ एवो संदेह मटी जाय, एवी शंका रहे ज नहि. एकला परने ज जाणवा-मानवारूप जे प्रवर्ते छे तेने आत्मा जणातो नथी; बाकी स्व-पर बन्नेने जाणे एवुं भगवान आत्मानुं सहज स्वभाव-सामर्थ्य छे. समजाणुं कांई...?
अहो! अंदर स्वस्वरूपना आनंदमां झूलतां झूलतां आचार्य भगवाने आत्मानी शक्तिओनुं महा अद्भुत वर्णन कर्युं छे. कहे छे-आत्मानी अनंत शक्तिओ छे, पण कहेवी केटली? एम के-शब्दो तो परिमित छे, ने शक्तिओ तो अपरिमित अनंत छे. तेथी वचन द्वारा अमे केटली कहीए? अने अमने एने कहेवानी फुरसद पण कयां छे? अमे तो निजानंदरसलीन रहीए छीए. केवळज्ञान थये बधीय-अनंत प्रत्यक्ष जणाशे, वाणीमां केटली कहेवी? छतां अहीं ४७ शक्तिओनुं वर्णन करीने आत्मानो अद्भुत वैभव आचार्यदेवे खुल्लो कर्यो छे.
तेमां आत्मानी एक शक्ति एवी छे के पोते स्व-परनो ज्ञाता पण थाय अने स्व-परनो ज्ञेय पण थाय. अहीं स्वपरनो ज्ञेय थाय एम कह्युं त्यां परनो एटले परजीवोना ज्ञानमां ज्ञेय थाय एम वात छे, कांई जडनो- इन्द्रियादि जड पदार्थोनो ज्ञेय थाय एम नहि. जडमां तो कयां ज्ञान छे के आत्मा एनो ज्ञेय थाय? हवे जडने- इन्द्रियादिने तो पोतानी ज खबर नथी त्यां ते बीजाने शुं जाणे? एक आत्माने ज स्व-परनी खबर छे. अहो! आत्माना पोताना आवा ज्ञेय-ज्ञायक स्वभावने अंतर्मुख थई जाणतां पोताने पोतानी खबर पडे छे. पोते सूक्ष्म अरूपी चीज छे तेथी पोते पोताने न जाणे एम कोई अज्ञानीओ माने छे पण एवी वस्तु नथी. अरे भाई! पोताने पोतानी खबर न पडे तो पोतानी निःशंक प्रतीतिकयांथी थाय? अने निज स्वभावनी निःशंकता थया विना साधक जीव कोनी साधना करे? अरे भाई! अंदर तारो स्वभाव ज एवो छे के अंतरमां जाग्रत थतां स्वरूपनी निःसंदेह प्रतीति थाय छे. आनुं नाम धर्म छे. आवो मारग!
हवे लोकोने तो पूजा करवी, भक्ति करवी, ने व्रत-उपवासादि करवां ठीक पडे छे, पण भाई! ए कांई धर्म नथी; धर्मनुं कारणेय नथी.
तो ज्ञानी-धर्मी पुरुषो पण आ बधुं करे तो छे? शुं करे छे? अशुभथी बचवा माटे ज्ञानीने भक्ति, पूजा इत्यादि शुभभावना परिणाम थता होय छे, पण तेने ते धर्म वा पोतानुं कर्तव्य जाणता नथी. ए सघळा शुभभावो ज्ञानीने हेयपणे ज होय छे. हवे ज्ञानीना अंतरने जाणे नहि, ने करे छे, करे छे एम माने, पण ए ज तो अज्ञान छे!
खरेखर तो साचां भक्ति, पूजा इत्यादि शुभभावो समकितीने ज होय छे, अज्ञानीने नहि. पंचास्तिकायनी (गाथा १३६) टीकामां आवे छे के भक्ति आदि प्रशस्त राग, अस्थाननो राग अटकाववा अर्थे वा तीव्र राग ज्वर निवारवा अर्थे, कदाचित् ज्ञानीने होय छे. वास्तवमां सम्यग्द्रष्टिने ज यथार्थ व्यवहार होय छे. बाकी अज्ञानीने व्यवहार केवो?
एक वखत संप्रदायमां चर्चा थई हती. एक शेठ तरफथी प्रश्न थयेलो के-ज्यां सुधी जीव मिथ्याद्रष्टि होय त्यां सुधी ज मूर्ति-पूजा होय छे, सम्यग्दर्शन थया पछी मूर्ति-पूजा आदि होतां नथी; बराबर ने?
त्यारे उत्तर आपेलो के-भाई! सम्यग्द्रष्टिने ज साचां भक्ति, पूजा आदिनो व्यवहार होय छे, केम के वास्तवमां सम्यग्दर्शन थाय त्यारे ज तेने सम्यक् भावश्रुतज्ञान प्रगट थाय छे. आ सम्यक् श्रुतज्ञान अवयवी छे, ने निश्चय-व्यवहार नय तेना अवयव छे. अंदर भावश्रुत प्रगट थयुं होय एवा समकितीने ज आ बन्ने नय होय छे. अज्ञानीने निश्चय पण नथी ने व्यवहारेय नथी. एनी बधी ज क्रिया, तेथी अज्ञानमय होय छे. आवी वात! समजाणुं कांई...?
निश्चय अने व्यवहार ए बे नय श्रुतप्रमाणना भेद छे. नयना विषयने निक्षेप कहे छे. आ निक्षेपना चार भेद