छे-नाम, स्थापना, द्रव्य अने भाव. आ चार निक्षेप ते ज्ञेयना भेद छे. तेमां स्थापना निक्षेप ते व्यवहारनयनो विषय छे. तेथी अरिहंतनी स्थापनारूप प्रतिमा ते धर्मी-समकितीने पूजनीक छे, अने ते यथार्थ निमित्त छे. आ प्रमाणे सम्यग्दर्शन थया पछी भगवाननी भक्ति, स्तुति अने पूजाना भाव ज्ञानीने अवश्य थता होय छे, अने तेने व्यवहार कहेवामां आवे छे. अहा! ज्ञानीने भक्ति, पूजा इत्यादिनो प्रशस्त राग जरूर थतो होय छे, पण तेनी तेने पकड (परिग्रह) नथी. अमे तो आ वात प० वर्ष पहेलां संप्रदायमां हता त्यारे करेली. त्यारेय संप्रदायमां चालती वात एम ने एम मानी लेवी ते अमारी रीति नहोती. स्व-हितनी झंखना हती ने! ए तो अंतरमां न्यायथी बेसे ते ज स्वीकारवानी अमारी पद्धति हती.
अहा! स्व-पर ज्ञेयोने ग्रहण करवानो जीवनो स्वभाव छे. ग्रहण करवुं एटले शुं? ग्रहण करवुं एटले हाथथी जेम कोई चीज पकडीए तेम ज्ञेयोने पकडवुं एम नहि, केम के जीवने कयां हाथ-पग छे? ग्रहण करवुं एटले जाणवुं एम वात छे. अहीं स्व-पर ज्ञेय कह्यां तेमां अनंत गुणमय त्रिकाळी शुद्ध द्रव्य ने तेमां अभेद-तन्मय थयेली वीतराग परिणति ते स्वज्ञेय छे, अने व्यवहार रत्नत्रयनो राग तथा देव-गुरु आदि परज्ञेय छे, केम के राग अने देव-गुरु आदि कांई जीवस्वरूप नथी. अहा! आवुं अंतरमां समजे तेना ज्ञानमां निज शुद्ध चैतन्यनुं ग्रहण थाय छे, ने परज्ञेयो मारा छे एवुं विपरीत श्रद्धान दूर थाय छे. आ अपूर्व धर्म छे.
अहाहा....! भगवान, तुं एकला चैतन्यस्वरूप छो नाथ! गाथा १७-१८मां आव्युं छे के आबाळ-गोपाळ सर्वने सदाकाळ ज्ञाननी पर्यायमां स्वज्ञेय जाणवामां आवे एवो ज्ञाननी पर्यायनो स्वभाव छे. पण अरे! अनादिनी एनी बहिर्दष्टि छे! त्रिकाळी एक ज्ञायकभावनी द्रष्टि न होइ तेनी द्रष्टि परथी खसती नथी; परंतु अंतद्रष्टि करतां ज शुद्ध चैतन्यनुं ग्रहण थाय एवो भगवान आत्मानो ज्ञानस्वभाव छे. अहा तारो ज्ञानस्वभाव स्व-पर ज्ञेयोने जाणवाना प्रमाणज्ञानरूप छे, अने तारा ज्ञानादि अनंत स्वभाव परना ज्ञानमां (केवळी आदिना ज्ञानमां) ग्रहण कराववाना प्रमेयस्वभावरूप छे. अहा! आवी तारामां परिणम्य-परिणामकत्वशक्ति छे.
अरे भाई! आ पैसा मारा एम तुं माने पण एवो तारो-जीवनो स्वभाव नथी. लक्ष्मी, मकान, स्त्री- कुटुंब-परिवार, देव-गुरु आदि ए बधुं ज्ञेयपणे तारा ज्ञानमां जणावालायक छे, पण ए बधा ज्ञेयो तारा छे एवुं कयां छे? ते ज्ञेयो मारा छे एम तुं माने पण ए तो केवळ भ्रम छे, केम के एवो वस्तुस्वभाव नथी. वळी परना प्रमाणमां प्रमेय थाय एवो तारो स्वभाव छे, पण परनो तुं थाय, परनो पिता ने परनो पुत्र तुं थाय, एवो तारो स्वभाव नथी.
सांभळ तो खरो प्रभु! जगतनी सघळी चीजो ज्ञेय तरीके तारा ज्ञानमां जाणवामां आवे एवो तारा ज्ञाननो स्वभाव छे. भाई! तुं ते चीजोनो कांई मालीक नथी. अहा! परज्ञेयोने ग्रहण करवारूप जे प्रमाणज्ञान तेनो तुं मालीक छो, पण परज्ञेयोनो मालीक नथी. भगवान मारा ने गुरु मारा-एम तुं माने, पण ए बधा तो तारा ज्ञानना ज्ञेय छे बस; मारा भगवान ने मारा गुरु एवी तो जगतमां कोई वस्तु छे नहि वळी ज्ञानानंद स्वभावे परिणमेला होय एवा जीवना प्रमाणज्ञानमां प्रमेय थईने तेमां जणावालायक तुं छो, पण परनो तुं था एवी तारी लायकात नथी. भाई, परनो तुं कांई नथी, अने पर तारा कांई नथी. परनो तुं था ने पर तारा थाय एवो वस्तुस्वभाव ज नथी. समजाणुं कांई...?
हा, पण भगवानने १४००० साधु-शिष्यो हता, ने ३६००० आर्जिकाओ-शिष्या हती एम शास्त्रमां आवे छे ने?
उत्तरः– आवे छे; पण आ बधां कथन व्यवहारनयनां छे बापु! बाकी भगवाननुं कांई नथी, ने भगवान कोईना नथी. अहीं तो आ वात छे के भगवानना केवळज्ञानमां लोकना सर्व ज्ञेयाकारोने युगपत् ग्रहण करवानो स्वभाव छे, अने पर केवळीना ज्ञानमां ज्ञेयाकारोने ग्रहण कराववानो तेनो प्रमेय स्वभाव छे. भाई! तारा ज्ञानस्वभावमां सर्व ज्ञेयो जणावालायक छे बस एटलुं राख. परज्ञेयो मारा, ने हुं परनो-ए वात जवा दे भाई! (केम के) एवी वस्तु नथी. अहो! आचार्यदेवे एकलां अमृत रेडयां छे!
अहा! आवो अनंत स्वभावमय अमृतसागर उछळे त्यां वांधा-विरोधनी वातो शोभे नहि. अहीं तो कहे छे-जगतमां कोई प्राणी विरोधी-दुश्मन छे नहि; सर्व प्राणी ज्ञेयमात्र छे. आवो भगवाननो न्यायमार्ग भाई! जेवुं पदार्थोनुं स्वरूप छे तेवुं तेनुं ज्ञान करवुं ते न्याय छे; तेवी तेनी प्रतीति करवी ते सम्यग्दर्शन छे, अने ते धर्म छे. अहीं तो आटली वात छे के-पर ज्ञेयाकारो पोताना ज्ञानमां निमित्त छे बस, अने पोताना ज्ञानाकारो परना ज्ञानमां निमित्त छे बस. आवो ज आत्मानो परिणम्य-परिणामकत्वस्वभाव छे.