८६ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११
भाई! वीतराग सर्वज्ञदेव एम कहे छे के-मारा ज्ञानमां तुं ज्ञेय तरीके जणावालायक छो, पण मारो तुं कांई नथी, वळी हुं पण पर केवळज्ञानी जीवना ज्ञानमां प्रमेय थवाने लायक छुं, पण तेनो हुं कांई नथी. आवो वस्तुस्वभाव छे भाई!
केटलाक स्त्रीने अर्धांगना कहे छे ने! धूळेय अर्धांगना नथी सांभळने, ए तो तारा ज्ञाननुं परज्ञेय छे. ते ज्ञेयनुं ज्ञान करे एवी जे ज्ञाननी परिणति छे ते तारी छे, केम के स्वपरने जाणवानो आत्मानो स्वभाव छे. परज्ञेयनुं कार्य करे के परज्ञेय पोताना थई जाय एवो आत्मानो स्वभाव नथी. अहा! आवो वस्तु-स्वभाव जेणे यथार्थ ओळख्यो ते न्याल थई जाय एवी आ वात छे.
लोकोने आ वात सूक्ष्म पडे छे, पण आ मूळ मुदनी वात छे. परना गुरु थवुं के परना शिष्य थवुं ए कांई आत्मानो स्वभाव नथी. शक्तिनुं पर्यायमां परिणमन थयुं एनी आ वात छे. शक्ति द्रव्यमां गुणपणे तो त्रिकाळ पडी छे, पण द्रव्यस्वभावनी द्रष्टि थतां शक्तिनुं परिणमन पर्यायमां थाय छे. ते पर्यायमां बहारना अनंत ज्ञेयो जणाय छे. पण ते ज्ञेयो मारा छे एम कोई माने तो एवुं कयां छे? ए तो तद्न विपरीत द्रष्टि छे. बीजा जीवने केवळज्ञान प्रगटयुं होय वा मति-श्रुतज्ञान होय-तेना ज्ञानमां ज्ञेय थईने ज्ञानाकारोने ग्रहण करावानो तारो स्वभाव छे, पण परनो तुं थई जा एवो तारो स्वभाव नथी. भगवान! तुं एक ज्ञाता-द्रष्टा छो; बस आ वात अहीं विशेषपणे सिद्ध करे छे.
अहा! सम्यग्द्रष्टि जीवने अंतरमां एवी प्रतीति थई छे के-सर्व परज्ञेयो-शरीर, मन, वाणी, कर्म, भावकर्म, रागादि बधा मारा ज्ञानमां जणावालायक छे; व्यवहार रत्नत्रयनो विकल्प उठे ते पण परज्ञेयपणे ज्ञानमां जणावालायक छे, पण तेमां स्वामित्वनी बुद्धि नथी. हवे लोकोने आना ज मोटा वांधा छे, एम के-व्यवहार-शुभराग मोक्षनो मार्ग छे-एम तेओ माने छे. पण अहीं तेनी ना पाडे छे. शुभराग पण परज्ञेय छे, अनात्मा छे. ते ज्ञेयने ग्रहण करवानो एटले के जाणवानो आत्मानो स्वभाव छे. १२मी गाथामां पण आवी गयुं के व्यवहारनय जाणेलो प्रयोजनवान छे. ११मी गाथामां पण आवी गयुं के-पोतानो एक त्रिकाळी ज्ञायकभाव सत्यार्थ छे, केम के तेना आश्रये सम्यग्दर्शन ने धर्म थाय छे. चारेकोरथी देखो तो आ एक ज सिद्धांत सिद्ध थाय छे. सम्यग्द्रष्टिने जे रागांश बाकी छे ते तेने परज्ञेय तरीके ज्ञानमां जाणवालायक छे पण; राग मारो छे, वा रागथी ज्ञान थाय छे एम नथी. अहा! रागथी भिन्न पडी वीतराग थवा नीकळ्यो छे ते रागने पोतानो केम जाणे? ने रागने भलो केम माने? राग तो एना ज्ञाननुं ज्ञेय छे बस. बाकी राग रागपणे रागमां छे, ने ज्ञान ज्ञानपणे ज्ञानमां छे. (परस्पर कांई लेवादेवा नथी). समजाणुं कांई...? (रागथी ज्ञान नहि, ने ज्ञानथी राग नहि.) आवी वात छे बापु!
आचार्यश्री अमृतचंद्रस्वामी कहे छे-जे समये जेटलो राग होय छे ते ते समये व्यवहारे जाणवालायक छे. बारमी गाथानी टीकामां ‘तदात्वे’ शब्द पडयो छे, एटले के ते ते काळे राग जाणवालायक छे. एटले शुं? के राग मारा ज्ञाननुं ज्ञेय छे एम कहेवुं ए व्यवहार छे. वास्तवमां ते ते काळे ज्ञाननी स्व-पर-प्रकाशक पर्याय स्वयं पोताथी प्रगट थाय छे, अने तेमां राग परज्ञेयपणे जणाय छे बस. राग ज्ञेय छे माटे ज्ञाननी परप्रकाशक पर्याय प्रगट थाय छे एम नथी. स्वपरने जाणवानी ज्ञाननी क्रमवर्ती पर्याय पोताना सामर्थ्यथी प्रगट थाय छे, रागना-निमित्तना कारणे प्रगट थाय छे एम नथी.
अरे भगवान! तारो मार्ग तो जो. अहा! तारी चीज अंदर एवी छे के जे समये राग आव्यो ते समये ते राग संबंधी ज्ञान थाय एवो तारो स्वभाव छे. तथापि ते रागथी ज्ञाननी पर्याय उत्पन्न थाय छे एम छे नहि; ज्ञाननी पर्याय पोताथी ज उत्पन्न थाय छे. तेमां ज्ञेयनुं-रागनुं ज्ञान थयुं एम कहेवुं व्यवहार छे. वळी ज्ञाननी दशानो जाणनार हुं छुं-ए पण भेदरूप व्यवहार छे. हुं तो एक ज्ञायक छुं. अहाहा...! एवुं अंदर परिणमन थई गयुं त्यां ज्ञायक थई गयो. सूक्ष्म वात छे भाई! अंदर जे गंभीरता भासे छे एटलुं बधुं कहेवानुं बने नहि, केम के शब्दोनी एटली ताकात नथी. भगवान केवळीए अने दिगंबर संतोए जे कह्युं छे तेनी उंडप अपार छे. अरे! भगवानना अने केवळीना केडायती दिगंबर संतोना अहीं आ काळे विरह पडया! पोताना ज्ञानमां परवस्तु ज्ञेय छे अने परना ज्ञानमां पोते ज्ञेय छे-एवी जीवनी प्रमाण-प्रमेय शक्तिने जे यथार्थस्वरूपे माने तेने अंतरमां शक्तिवान द्रव्यनी प्रतीति थाय छे, अने तेनुं नाम सम्यग्दर्शन छे.
अहा?ं अहीं आ परिणम्य-परिणामकत्व नामनी शक्तिनुं वर्णन चाले छे. आचार्य श्री जयसेनाचार्यदेव कहे छे के एकधाराए एक शक्ति के एक भाव जो यथार्थ समजे तो बधा भाव यथार्थ समजी जाय एवुं आ वस्तुस्वरूप छे.