Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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८८ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११ के पुण्य करतां करतां धर्म थशे एम भरमाई जाय छे). आवी वात!

अरे भाई! तुं एक वार आ तारी वात सांभळ तो खरो! अहा! तुं कोण छो, केवो छो? तो कहे छे-जेमां कदीय घट-वध थती नथी एवो एक ज्ञायकस्वरूप पूर्णानंद-ज्ञानानंद प्रभु छो. अहाहा...! सिद्धपदनी पर्याय प्रगट थई, एटली पूर्ण शुद्धता पर्यायमां आवी तो अंदर त्रिकाळीमां कांई कमी थई के नहि? तो कहे छे-ना, एम छे नहि. वळी चोथे गुणस्थाने सम्यग्दर्शननी शुद्ध पर्याय थई त्यां पूर्ण स्थिरता थई नथी तो अंदर द्रव्य स्वरूपमां शुद्धता विशेष (विशेष शुद्धता) छे के नहि? तो कहे छे-ना, एम छे नहि. अहाहा...! अंदर द्रव्यस्वभाव तो जेवो छे तेवो ज त्रिकाळ परिपूर्ण छे, तेमां कांई घट-वध थती ज नथी.

हवे आवो मारग प्रभुनो छे. बहारमां तो आ करो ने ते करो-पूजा करो ने भक्ति करो, व्रत करो ने तप करो-एम करो-करो-नी ज प्ररूपणा चाले छे; पण ए तो बधा शुभभाव छे बापा! ए धर्म नहि प्रभु!

पण धर्मीने ए शुभभाव होय छे ने? हा, होय छे, अने होय छे एटले एने व्यवहारथी धर्म कहे छे, पण ए कांई वास्तविक धर्म नथी. धर्मीने ए शुभभावो हेयबुद्धिए होय छे, एमां एने कांई कर्तापणानी बुद्धि होती नथी. अहीं शक्तिना अधिकारमां ए मलिन भावनी कांई स्थिति ज नथी. समजाणुं कांई...?

अहाहा...! जे शक्ति त्रिकाळ शुद्ध छे ते द्रव्य-गुणमां तो अनादिथी व्यापक छे, अने शक्तिवान द्रव्य जे छे तेनी अंतर्मुख प्रतीति थतां शक्ति पर्यायमां पण व्यापक थाय छे, अने त्यारे पर्यायमां शक्तिनुं निर्मळ कार्य प्रगट थाय छे. अहाहा...! त्रिकाळी द्रव्य-गुण तो परद्रव्य ने विकारना ग्रहण-त्यागथी रहित त्यागोपादान शून्य छे, पण तेनी निर्मळ पर्याय जे प्रगट थाय तेय परद्रव्य ने विकारना ग्रहण-त्यागथी रहित त्यागोपादान शून्य छे, अर्थात् तेमां कोई घट-वध नथी. पर्याय अपूर्ण शुद्ध हो के पूर्ण शुद्ध हो, द्रव्यमां-त्रिकाळीमां जेम कोई घट-वध थती नथी, तेम ते पर्यायमां पण परद्रव्यनां के विकारनां ग्रहण-त्याग नहि होवाथी घट-वध थती नथी. आवी सूक्ष्म वात!

वध घट रहित नियतत्त्वरूप शक्ति छे तेनुं पर्यायमां परिणमन थाय छे. तेथी पर्यायमां शक्ति व्यापक थतां द्रव्यनी पर्यायमां (निर्मळ पर्यायमां) पण घट-वध थती नथी. भाई! भले पर्यायमां अल्प-अपूर्ण शुद्धतां होय, पण ते पूर्ण त्रिकाळी, द्रव्यने प्रसिद्ध करे छे, ते कांई विकारने के परद्रव्यने प्रसिद्ध करती नथी. परद्रव्यनी के विकारनी तेमां घूस-पेठ ज कयां छे? भाई! एक पण पर्यायमां जो कमी-वृद्धि थवानुं मानो (परद्रव्यनी के विकारनी घूस-पेठमानो) तो त्रिकाळी द्रव्य सिद्ध नहि थाय. (अर्थात् मिथ्यात्व ज थशे) पण अहीं अशुद्धतानी वात ज नथी. आ रीते द्रव्यनी क्रमवर्ती (निर्मळ, निर्मळ) पर्यायोमां आ त्यागोपादानशून्यत्वशक्तिनुं पण भेगुं परिणमन थाय छे.

वस्तु जे छे ए तो त्रिकाळ त्यागोपादानरहित छे. परनुं (के विकारनुं) ग्रहण के परनो (के विकारनो) त्याग ए तो जीवना स्वरूपमां ज नथी. शुं कीधुं? रागनो त्याग करवो ए एनुं स्वरूप नथी. एणे रागने कयां ग्रह्यो छे के त्याग करे? रागनो त्याग करवो अने निर्मळ पर्यायने करवी ए एना स्वरूपमां नथी, ए तो पर्याय सहज ज उत्पन्न थाय छे. त्यां जे निर्मळ पर्याय प्रगट थई ते, कहे छे, घट-वध रहित छे, अर्थात् तेमां विकारनां ग्रहण-त्याग नथी. हवे आवी वात सर्वज्ञ सिवाय बीजे कयांय मळे एम नथी.

भाई! तुं जो तो खरो अंदर पूरण शुद्ध तारी चीज केवी छे? तने पूर्ण शुद्धता प्रगट थाय तो तेमां शुं कांई कमी थाय छे? अने कदाच अपूर्ण शुद्धता रही छे तो शुं अंदर चीजमां विशेष-वधारे शुद्धता छे? अहीं कहे छे-ना, एम छे ज नहि; त्रिकाळी शुद्ध एक ज्ञायकभावमय द्रव्य छे ए तो जेम छे तेम ज छे, तेमां कांई कमी-वृद्धि थती ज नथी, केम के तेमां परद्रव्य-परभावनां ग्रहण-त्याग नथी. अहा! अहीं तो विशेष-पर्यायनी वात सिद्ध करवी छे. अहा! शक्ति जे छे ते द्रव्यमां त्रिकाळ व्यापक छे, अने द्रष्टिवंतने ते पर्यायमां व्यापक थाय छे. अहाहा...! शक्तिवान एवुं जे द्रव्य छे तेनी अंतर्द्रष्टि अने अंतर-रमणतां थतां जे निर्मळ रत्नत्रय प्रगट थयां तेमां, कहे छे, घट वध नथी, केम के तेमां पण परद्रव्य-परभावनां ग्रहण-त्याग थतां नथी. अहो! आ अलौकिक वात छे.

अरे! परमात्माना विरह पडया! तथापि भरतमां परमात्मानी वाणी आ समयसारमां रही गई ए सद्भाग्य छे. आ वाणी साक्षात् शब्द ब्रह्म छे. तत्त्व स्वरूपथी अजाण कोई एनो विरोध करो तो करो, पण आ सत्य वात