छे, जिन वचन छे. भाई! तुं रागथी लाभ थवानुं माने पण ए तो मिथ्या मान्यता छे, केम के राग तारा स्वरूपमां ज नथी तो ते तने केम लाभदायक थाय? खरेखर तो पर्यायने ग्रहवी-छोडवी ए वात पण द्रव्यमां नथी; त्यां तुं परना जे रागनां ग्रहण-त्याग पोताने माने ए तो नर्युं मिथ्यात्व छे, केम के परनां ग्रहण-त्याग आत्मामां छे ज नहि. विचार तो कर. शुं जीवे रजकणोने पकडया छे के तेने छोडे? स्त्री-कुटुंब-परिवार, महेल-मकान-हजीरा ने धनादि सामग्री वगेरेने शुं जीवे पकडयां छे के एने छोडे? बीलकुल नहि; एने पकडयांय नथी, ने एने छोडवाय नथी.
प्रश्नः– तो दीक्षा वखते मुनिराज ए बधुं-घरबार वगेरे छोडे छे ने? उत्तरः– शुं छोडे छे? घरबार वगेरे बधुं तो ज्यां छे त्यां ज छे. ए तो पहेलां ए पदार्थोमां-घरबार वगेरेमां-आसक्ति हती ते, वैराग्यविशेष थतां स्वरूपलीनता द्रढ-गाढ थवाथी, छूटी जाय छे तो मुनिराजे ए बधुं छोडी दीधुं एम कथनमात्र व्यवहार करवामां आवे छे; बाकी परद्रव्यनां ग्रहण-त्याग वास्तवमां आत्माने छे ज नहि; दीक्षाकाळे मुनिराजना आत्मामां कांई घट-वध थाय छे एम छे ज नहि. आवी वात! समजाणुं कांई...? अहा! वस्त्रादिने छोडे के आहारने ग्रहण करे एवो चारित्र पर्यायनो स्वभाव नथी, चारित्र पर्याय तो आत्मलीनतारूप छे, तेमां परना ग्रहण-त्याग छे ज नहि.
अहाहा...! भगवान आत्मा चिदानंद प्रभु पूर्णानंदनो नाथ छे. तेनामां कदीय घट-वध न थाय एवो तेनो त्यागोपादानशून्यत्व स्वभाव छे. अहाहा...! आ त्यागोपादानशून्यत्वशक्ति छे ते द्रव्य-गुण-पर्याय त्रणेमां व्यापे छे. आ शक्ति द्रव्यनी बीजी अनंत शक्तिमां व्यापक छे, ने अनंत गुणनी पर्यायमां पण आ शक्तिनुं रूप छे. तेथी तो द्रव्य-पर्यायमां घट-वध थती नथी, अर्थात् द्रव्य-पर्यायमां परद्रव्यनी घूस-पेठ थती नथी.
भाई! अपूर्ण शुद्ध अने पूर्ण शुद्ध एवो भेद पर्यायमां भले हो; पण जे अपूर्ण शुद्ध पर्याय छे तेय घट-वध रहित आखा-पूर्ण द्रव्यने सिद्ध करे छे. तेथी एक पर्यायने पण न मानो तो आखुं द्रव्य सिद्ध नहि थाय, केम के सर्व अनंत पर्यायोनो पिंड ते द्रव्य छे. समजाय एटलुं समजो बापु! आ तो गजबनी वात छे. आ तो ख्यालमां आवे तेवुं छे, आना पछी अगुरुलघुत्वगुण नामनी शक्तिनुं सूक्ष्म वर्णन आवशे. तेनुं स्वरूप तो केवळीगम्य कह्युं छे.
बंध अधिकारमां (जयसेनाचार्यदेवनी टीका) आवे छे के बंधना नाश माटे आम भावना करवी. शुं! के-‘हुं निर्विकल्प छुं, हुं भरितावस्थ छुं.’ भरितावस्थ एटले पर्याय नहि, पण भरितावस्थ एटले निश्चय शक्तिथी परिपूर्ण भरपुर भरेलो अवस्थित छुं. अहाहा...! आवी घट-वध रहित अनंत शक्तिथी पूर्ण भरपुर सहज शुद्ध ज्ञानानंदस्वभावी प्रभु हुं छुं ल्यो, आ बंधना नाश माटेनी भावना कही छे.
संवत १९६४नी सालमां अमे वडोदरा माल लेवा गयेला. त्यारे त्यां ‘सति अनसूया’ नामनुं नाटक जोवा गयेला. ते नाटकमां आम वात आवती. अनसूयाने पुत्र नहोतो. ते ज्यारे स्वर्गमां गई तो तेने कहेवामां आव्युं के- ‘अपुत्रस्य गतिर्नास्ति’-जेने पुत्र न होय तेनी सद्गति थती नथी. आ तो एक मतनी आवी मान्यता छे, एवुं वस्तुस्वरूप छे एम न समजवुं. अहीं तो द्रष्टांतमात्र वात छे. तो स्वर्गमां अनसूयाने कहेवामां आव्युं के-पुत्र रहितने स्वर्गमां स्थान न मळे, माटे नीचे जा, अने पहेलां जे कोई पुरुष सामो मळे तेने वर. आम ते नीचे आवी ने प्रथम सामे मळनार अंध ब्राह्मण साथे तेणे लग्न कर्या. तेने एक पुत्र थयो. माता अनसूया पुत्रने पारणामां झुलावतां आम कहेती के-‘बेटा, शुद्धोडसि, बुद्धोडसि, निर्विकल्पोडसि, उदासीनोडसि’-बेटा, तुं शुद्ध छो, निर्विकल्प छो, उदासीन छो. ल्यो, नाटकमां पण त्यारे आवी वैराग्यभरपुर वातो कहेवाती. अत्यारे तो घणी बधी गरबड थई गई छे. अरे, जैनमां पण आ वात चालती नथी!
अहीं कहे छे-त्रिकाळी द्रव्यमां कमी-वृद्धि थती नथी. एवो हुं त्रिकाळ निर्विकल्प, अभेद, उदासीन छुं. अहाहा...! धर्मी जीव एम भावे छे के-नित्य निरंजन शुद्ध चिदात्माना सम्यक् श्रद्धान-ज्ञान-अनुष्ठानरूप, निश्चय निर्विकल्प समाधिथी उत्पन्न, वीतराग सहजानंदरूप, सदाय अनुभूतिमात्रथी जाणवामां आवे छे एवो हुं स्वसंवद्यमान पूर्ण छुं. अहाहा...! राग-द्वेष-मोहथी रहित, द्रव्यकर्म-भावकर्म-नोकर्मथी रहित, पंचेन्द्रियना विषय व्यापारथी ने मन-वचन-कायना व्यापारथी रहित एवो त्रिकाळ ज्ञानरस, आनंदरस, श्रद्धारस, चारित्ररस, शांतरस- एम अनंत गुणोना रसथी भरित-पूर्ण एक हुं छुं. जुओ, आ भावना!