९०ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११
प्रवचनसारमां (नय अधिकार) आवे छे के हुं पोताथी अशून्य छुं, पूर्ण छुं अने परथी शून्य छुं. शुं कीधुं आ? के हुं परथी-रागादि विकारथी शून्य छुं, शुभाशुभभावथी हुं शून्य छुं, हुं सर्व विभावपरिणतिथी रहित छुं. हवे आम छे छतां लोको तो शुभभावथी कल्याण थवानुं माने छे. पण भाई! तारी ए मान्यता खोटी छे, केमके शुभभाव छे ते बंधरूप छे, बंधनुं कारण छे, अने भगवान आत्मा तेनाथी शून्य छे. अहा! लोकमां निगोदथी मांडी सिद्ध पर्यंतना सर्व जीवो निजस्वभावथी पूर्ण भरपुर छे, ने परथी शून्य छे. निगोदनी दशाना काळे के सिद्धनी दशाना काळे-सर्व अवस्थाओमां एक ज्ञायकप्रभु भगवान आत्मा निज चैतन्य स्वभावथी पूर्ण भरपूर छे, ने परथी शून्य छे. भाई! द्रव्यस्वभाव त्रिकाळ एवो ने एवो छे, तेमां कदीय घट-वध थती नथी. अहा! अनंत अनंत केवळज्ञाननी ने सिद्धदशानी पर्यायो प्रगटी जाय तोय द्रव्यस्वभाव तो एवो ने एवो ज घट-वध रहित रहे छे. आम स्वरूपथी प्रत्येक आत्मा निर्विकल्प, भरितावस्थ, पूर्ण, चिदानंदस्वरूप छे. आवो पूर्ण निजस्वभाव छे तेने स्वीकारी तेना आश्रये परिणमतां शुद्धता ने पूर्णशुद्धता प्रगटे छे. आनुं नाम धर्म छे.
समयसारनी ३४मी गाथामां आव्युं छे के-आत्माने रागना त्यागनुं कर्तापणुं नाममात्र छे. परमार्थे आत्मा रागना त्यागनो कर्ता नथी. ए तो पोताना स्वरूपमां ज्यां रमणता-स्थिरता थई त्यां रागनी उत्पत्ति ज न थई तो तेणे रागनो त्याग कर्यो एम व्यवहारथी कहेवामां आवे छे. पोतानुं स्वरूप निजस्वभावथी भरपुर भर्युं छे, तेनी प्रतिति करी स्वरूपमां स्थिरता करवी ते चारित्र छे. स्वरूपस्थिरतारूप आ चारित्र रागना त्यागस्वरूप छे, तेथी रागनो त्याग कर्यो एम नाममात्र कहेवामां आवे छे. परमार्थथी रागनो त्याग करवो ए वात आत्माने लागु पडती नथी, केमके परमार्थे भगवान ज्ञायकमां रागनां ग्रहण-त्याग छे ज नहि. अहा! आवा ज्ञायकस्वभावने अनुसरीने- आलंबीने जे पर्याय (चारित्रनी दशा) प्रगट थाय. ते पण रागना ग्रहण-त्याग रहित छे. आ रीते द्रव्य-गुण- पर्याय त्रणेय रागना-विकारना ग्रहणथी ने त्यागथी शून्य छे. अहा! आवी अलौकिक वात भगवान सर्वज्ञना शासन सिवाय कयांय नथी. पण शुं थाय? जैनमां जन्मेलाने पण आनी खबर नथी! भाई! जेम पितानी मूडी- वारसो होंशथी संभाळे तेम परम पिता-जैन परमेश्वरनो आ वारसो खूब होंश लावी संभाळवो जोईए. (तेमां ज पोतानुं कल्याण छे).
अहाहा...! चैतन्यमूर्ति प्रभु आत्मा एकला (शुद्ध) चैतन्यस्वभावथी पूर्ण भरपुर छे. ते परना ग्रहण- त्यागथी शून्य छे; आवो आत्मानो त्यागोपादान-शून्यत्व गुण नाम स्वभाव छे. निज त्रिकाळी द्रव्यनी सन्मुख थई परिणमतां भेगुं त्यागोपादानशून्यत्व गुणनुं परिणमन पण थाय छे, जेथी प्रगट पर्यायमां परद्रव्य-परभावनां ग्रहण-त्याग थतां नथी, प्रगट पर्याय घट-वध रहित छे. आ शुद्ध पर्यायनी वात छे, अहीं अशुद्ध पर्यायनी वात नथी. पोतामां प्रगट थती आवी पर्याय पूर्ण शुद्ध हो के अपूर्ण शुद्ध हो, ते पर्याय पूर्ण द्रव्यने सिद्ध करे छे. सम्यग्दर्शननी पर्याय हो तो पण ते पर्याय पूर्ण द्रव्यने सिद्ध करे छे. माटे ते पर्यायने पण पूर्ण कहेवामां आवे छे. हवे आवो मारग जैन परमेश्वरनो! आ कांई कल्पनाथी ऊभो करेलो मारग नथी, आ तो वस्तुस्वरूप छे भाई! कह्युं छे ने के-
यही वचनसे समज ले, जिन प्रवचन का मर्म.
अहा! अंदर भगवान ज्ञायक परिपूर्ण भरपुर छे. तेमां आ एक शक्ति एवी छे के दरेक गुणनी पर्याय पूर्ण भरितावस्थ छे, दरेक गुणनी पर्यायमां त्यागोपादानशून्यत्वशक्तिनुं रूप छे. जेथी ज्ञाननी पर्याय परज्ञेयना ग्रहण- त्यागथी शून्य छे, श्रद्धानी पर्याय मिथ्यात्वना ग्रहण-त्यागथी शून्य छे, चारित्रनी पर्याय रागना-विकारना ग्रहण- त्यागथी शून्य छे. आनंदनी पर्याय आकुलताना ग्रहण-त्यागथी शून्य छे. अहा! आ तो अमृतनां झरणां वह्यां छे भाई! दिगंबर संतो-मुनिवरो सिवाय कयांय आ झरणां छे नहि. कहे छे-भगवान! तुं परिपूर्ण छो नाथ! ने परिपूर्णमांथी जे पर्याय प्रगटी तेय पूर्ण छे, परना ग्रहण-त्याग रहित छे.
आखुं द्रव्य छे ते गुणी छे, तेमां शक्तिओ छे ते गुण छे. ते गुणनुं अहीं वर्णन चाले छे. गुण कहो, स्वभाव कहो के सत्नुं सत्त्व कहो-बधानो एक ज अर्थ छे. शरुमां ज आचार्यदेवे कह्युं छे के-“ज्ञानमात्रमां अचलितपणे स्थापेली द्रष्टि वडे, क्रमरूप अने अक्रमरूप प्रवर्ततो, तद् अविनाभूत अनंतधर्मसमूह जे कांई जेवडो लक्षित थाय छे,