९२ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११
संवत १९८३नी सालमां आ विषयने लगती चर्चा थयेली. एक शेठ हता ते कहे-लोकालोक छे तो केवळज्ञाननी पर्याय थई. त्यारे अमे कहेलुं-ना, एम नथी; केवळज्ञाननी पर्याय पोताथी थई छे, लोकालोकनी एने अपेक्षा नथी. लोकालोक छे माटे केवळज्ञान छे एम छे नहि. सर्वविशुद्धज्ञान अधिकारमां आ वात आवी गई छे. केवळज्ञान लोकालोकने निमित्त छे, अने लोकालोक केवळज्ञानने निमित्त छे-आवो पाठ छे. निमित्त छे एनो अर्थ शुं? बीजी चीज छे बस एटलुं. लोकालोक छे माटे केवळज्ञान छे एम छे नहि, अने केवळज्ञान छे तो लोकालोक छे एम पण छे नहि.
‘वत्थु सहावो धम्मो’ -वस्तु जे भगवान ज्ञायक आत्मा छे एनी जे शक्तिओ, ते एनो स्वभाव छे, अने ते स्वभाव एनो धर्म छे. त्यां आ धर्म अने आ धर्मी-एम भेदनी द्रष्टि छोडीने धर्मी-निज ज्ञायक प्रभु उपर द्रष्टि देवाथी पर्यायमां वीतरागतारूपी धर्म प्रगट थाय छे. सदाय आवो मारग छे.
पण अमे वरसी तप करीए तो धर्म थाय के नहि? धूळेय न थाय सांभळने. अंतरमां मारग समज्या विना खूब आकरां तप तपे तो पण ए तो बधां थोथां छे बापा! अंदरमां आनंदनो सागर भगवान आत्मा उछळे एनुं नाम तप छे. अहाहा...! भगवान आत्मामां अंदर शक्तिरूपे आनंद पूर्ण-पूर्ण भर्यो छे. त्यां आ आनंद अने आ आनंददाता-एवो भेद द्रष्टिमांथी काढी नाखीने पूर्णानंदस्वरूप निज भगवान ज्ञायक उपर द्रष्टि करी अंतर-रमणता करे तेने, जेम समुद्रमां भरती आवे तेम, पर्यायमां आनंदनी छोळ उछळे छे. आनुं नाम तप अने आ धर्म छे; बाकी तो तप नहि, लांघण छे. आवी वात! समजाणुं कांई...?
लोकोने भगवान केवळीनी श्रद्धा नथी. जुओ, द्रव्यनी पर्याय प्रतिसमय क्रमबद्ध थाय छे. शास्त्रमां (समयसार गाथा ३०८-३११नी टीकामां) ‘क्रमनियमित’ शब्द पडयो छे. तेनो अर्थ पं. श्री हिम्मतभाईए ‘क्रमबद्ध’ कर्यो छे. भाई! आ कांई सोनगढनी वात नथी, आ कोई पक्षनी वात नथी. आ तो वस्तुस्वरूप छे, तेने जेम छे तेम स्वीकारवुं जोईए.
प्रश्नः– पण तमे आ नवो मारग कयांथी काढयो? उत्तरः– आ नवो मारग नथी बापु! आ तो अनादिनो छे. अनंता सर्वज्ञ परमात्माए कहेली आ वात छे. वर्तमानमां आ वात चालती न हती खोवाई गई हती-ते अत्यारे प्रसिद्धिमां आवी छे.
संवत १९७२नी सालमां अमारे संप्रदायमां चर्चा थयेली. अमारा गुरुभाई कहे-भगवान केवळज्ञानीए ज्यारे जेम थवानुं दीठुं होय त्यारे तेम थाय ज, माटे आपणे वळी पुरुषार्थ शुं करवो? ते वखते अमे नवदीक्षित, मात्र रप वर्षनी उंमर, ने चर्चा नीकळेली तो त्यारे कहेलुं-केवळज्ञानीए ज्यारे जेम थवानुं दीठुं होय त्यारे तेम थाय ए तो बराबर; पण तमने केवळज्ञाननी सत्तानो स्वीकार छे? अहाहा! जे केवळज्ञाननी दशामां एक समयमां अनंता सिद्धो, अनंता निगोदना जीवो सहित छ द्रव्य-गुण-पर्याय सहित जणाय ते केवळज्ञाननी सत्तानो स्वीकार छे? जेने एनो स्वीकार होय तेनी द्रष्टि निज ज्ञानस्वभाव उपर जाय छे, जवी जोईए; अने एनुं ज नाम पुरुषार्थ छे. अंदर सर्वज्ञस्वभाव छे तेने जाण्या विना भाई! लोकमां सर्वज्ञ छे एम तुं कयांथी नक्की करीश?
भगवान आत्मा सर्वज्ञस्वरूप पूर्ण भरितावस्थ छे. आ वात शास्त्रोमां त्रण जगाए आवी छे. समयसार बंध अधिकारमां, सर्वविशुद्धज्ञान अधिकारमां (जयसेन आचार्यदेवनी टीका) अने परमात्म प्रकाशमां आ वात आवी छे. अहाहा...! सर्व जीव निर्विकल्प, निरंजन, भरितावस्थ छे. भरितावस्थ एटले शक्तिथी पूर्ण भरेला छे. अहाहा...! वर्तमान पर्यायने लक्षमांथी छोडी दो तो अंदर वस्तु छे पूर्ण परमात्मस्वरूप-सर्वज्ञस्वरूप छे. तेनी भावना करवी ते पुरुषार्थ छे.
संवत १९७२मां अमे गजसुकुमारनुं द्रष्टांत आपता. श्रीकृष्ण भगवान श्री नेमिनाथनां दर्शन करवा हाथी उपर बेसीने जता हता. तेमना नाना भाई गजसुकुमार खोळामां बेठा हता. रस्तामां श्रीकृष्णे एक सोनीनी कन्याने सोनाना दडे रमती दूरथी जोई. कन्या खूब स्वरूपवान ने खूबसुरत हती. तेने जोईने तेमणे नोकरने आज्ञा करी के- आ कन्याने अंतःपुरमां लई जाओ; गजसुकुमार साथे आ कन्यानां लग्न करवामां आवशे. नोकरो कन्याने अंतःपुरमां लई गया.