Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). 17 AGuruLaghutvaShakti.

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१७-अगुरुलघुत्वशक्तिः ९३

हवे श्रीकृष्ण, गजसुकुमार साथे भगवानना समोसरणमां आवी पहोंच्या. भगवाननां दर्शन करी भगवाननी वाणी सांभळवा लाग्या. वाणी सांभळतां ज गजसुकुमारनो पुरुषार्थ अंदरथी उछळ्‌यो. तेओ बोल्यो, “भगवन! हुं तो आगार छोडी अणगार थवा मागुं छुं, मुनिदीक्षा अंगीकार करवानी मारी भावना छे.” जुओ, आ पुरुषार्थ! गजसुकुमारे ज्यां भगवाननी वाणी सांभळी त्यां अंतर्लीन थवानो पुरुषार्थ उछळ्‌यो! भगवाने दीठुं हशे त्यारे थशे एम मानीने पुरुषार्थहीन न थया पण अंदर वैराग्यभावना प्रदीप्त थई. तेओश्री माता देवकी पासे रजा लेवा जाय छे. कहे छे-माता, हुं मुनिदीक्षा अंगीकार करवा इच्छुं छुं; माता रजा आप.

देवकी कहे छे-‘बेटा, देवनुं आराधन करवाथी तो तारो जन्म थयो छे; तुं केवा केवा लाडमां उछर्यो छे? हाथीना ताळवा जेवुं आ तारुं कोमळ शरीर! तने वनवास जवानी रजा केम अपाय? त्यारे गजसुकुमार कहे छे- माता! अंदर मारो आनंदस्वरूप चिदानंद-नित्यानंद-पूर्णानंद प्रभु आत्मा छे तेमां जई त्यां ज निवास करवा हुं अधीर छुं; हवे एक पळ पण हुं अहीं रही शकुं नहि, माटे हे माता! मने रजा दें. माताने रुदन करती जोई कहे छे- माता! तारे रुदन करवुं होय तो करी ले, पण हवे हुं क्षणवार पण थोभुं तेम नथी; हुं कोलकरार करुं छे के फरीने हवे हुं बीजी माता नहि करुं, हवे हुं (संसारमां) पाछो नहि फरुं. हवे हुं निज शुद्धात्मानी शरणमां शीघ्र ज जाउं छुं. अहाहा...! जुओ तो खरा, जेने अंतरमां केवळज्ञान बेठुं तेनो पुरुषार्थ केवो निज ज्ञानस्वभावनी सन्मुख झूकी जाय छे! आनुं नाम पुरुषार्थ ने आ केवळीनी प्रतीति छे.

वास्तवमां चार अनुयोगनुं तात्पर्य वीतरागता छे. आ वीतरागता कयारे प्रगट थाय? केवळज्ञाननी सत्तानो जे अंतर्मुख थई स्वीकार करे तेने वीतरागता प्रगट थाय छे. केवळज्ञान माने (-कहे) अने वळी आपणे पुरुषार्थ शुं करीए? -एम कहे तेने तो केवळज्ञान बेठुं ज नथी. वास्तवमां जेने केवळज्ञाननी सत्तानो अंतरमां स्वीकार थयो छे ते अंतःपुरुषार्थी छे ने तेना केवळज्ञानीए भव दीठा होय एम छे जे नहि.

अमने पूर्वना संस्कार हता एटले आ वात अंदरथी ते वखतेय आवती. जुओ आ पुरुषार्थनुं स्वरूप. केवळज्ञाननी सत्तानो स्वीकार करे तेने तो अनंतो पुरुषार्थ छे, अने भगवान केवळज्ञानीए ते जीवना भव दीठा होय एम छे ज नहि; केमके जगतमां केवळज्ञान छे अने तेनुं सामर्थ्य शुं? -एनो स्वीकार अंदर केवळज्ञानस्वभावमां झूकवाथी ज थाय छे. अहा! पूरण भरितावस्थ केवळज्ञानस्वभावी भगवान आत्मा छे ते घट- वध रहित सदाय एवो ने एवो ज छे एम स्वीकारी तेना आश्रये परिणमवुं ते धर्म छे.

आम कही त्यागोपादानशून्यत्वशक्ति पूरी थई.





१७ः अगुरुलघुत्वशक्ति

‘षट्स्थानपतित वृद्धिहानिरूपे परिणमतो, स्वरूप-प्रतिष्ठत्वना कारणरूप (-वस्तुने स्वरूपमां रहेवाना कारणरूप) एवो जे विशिष्ट (-खास) गुण ते-स्वरूप अगुरुलघुत्वशक्ति. [आ षट्स्थानपतित वृद्धिहानिनुं स्वरूप “गोम्मटसार” शास्त्रमांथी जाणवुं. अविभाग परिच्छेदोनी संख्यारूप षट्स्थानोमां पडती-समावेश पामती- वस्तुस्वभावनी वृद्धिहानि जेनाथी (-जे गुणथी) थाय छे अने जे (गुण) वस्तुने स्वरूपमां टकवानुं कारण छे एवो कोई गुण आत्मामां छे; तेने अगुरुलघुत्वगुण कहेवामां आवे छे. आवी अगुरुलघुत्वशक्ति पण आत्मामां छे.]