९४ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११
‘षट्स्थानपतित वृद्धिहानिरूपे परिणमतो, स्वरूप-प्रतिष्ठत्वना कारणरूप एवो जे विशिष्ट (-खास) गुण ते-स्वरूप अगुरुलघुत्वशक्ति’ शुं कह्युं आ? अहाहा...! आत्मामां आ कोई एवी शक्ति नाम स्वभाव छे के प्रत्येक समयमां षट्गुण, वृद्धिहानि थाय छे अने ते स्वरूप-प्रतिष्ठत्वना कारणरूप छे. गजबनी सूक्ष्म वात छे भाई! अहाहा...! षट्गुणवृद्धि षट्गुणहानि अने समय एक. एक समयमां षट्गुण वृद्धिहानि थाय एवो जीवनो कोई अचिन्त्य अगुरुलघुत्व स्वभाव छे.
आ अगुरुलघुत्वशक्ति द्रव्य-गुण-पर्याय त्रणेमां व्यापे छे. अगुरुलघुत्व स्वभाव अनंत गुणमां व्यापक छे. अगुरुलघुत्व गुण बीजा अनंत गुणमां छे एम नहि, पण बीजा अनंत गुणमां अगुरुलघुत्व गुणनुं रूप छे. आ रीते दर्शननी पर्यायमां अगुरुलघुपणुं छे, ज्ञाननी पर्यायमां अगुरुलघुपणुं छे, चारित्रनी पर्यायमां अगुरुलघुपणुं छे, इत्यादि. अहाहा...! आत्मामां जे आ मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, केवळज्ञान आदि पर्याय थाय छे तेमां प्रत्येकमां षट्गुण हानिवृद्धि थाय एवो अगुरुलघुत्व स्वभाव छे. आ केवळीगम्य छे. पं. दीपचंदजीए ‘चिद्-विलास’ ग्रंथमां आ शक्तिनुं वर्णन कर्युं छे. सिद्धभगवान छे तेमना विषे षट्गुण वृद्धिहानिनुं स्वरूप कह्युं छे ते मात्र त्यां द्रष्टांतरूप कथन छे. बाकी अगुरुलघुत्व गुणनुं सूक्ष्म परिणमन केवळज्ञानगम्य छे, वचनअगोचर छे, तर्क-अगोचर छे. (जुओ, आलाप पद्धति पृ. ८९) भाई! श्रुतज्ञानमां जो बधुं समजाई जाय तो केवळज्ञाननो दिव्य महिमा शुं?
अहा! केवळज्ञाननी पर्यायमां पण एक समयमां षट्गुण वृद्धिहानि थाय छे. केवळज्ञान तो छे तेवुं ज छे, त्रणकाळ-त्रणलोक सहित लोकालोकने जाणे छे; षट्गुण वृद्धिहानि थतां तेमां कांई वध-घट थती नथी. अहा! आवो ज कोई अगुरुलघुत्व स्वभाव छे जे भगवान सर्वज्ञदेवे कह्यो छे ने परमागममां बताव्यो छे. आ वात कांई तर्कथी- युक्तिथी पमाय एम नथी; ते आगमप्रमाणथी मानवी जोईए.
हवे जेने त्यागोपादानशून्यत्वशक्तिनी वातमां पर्यायनी पूर्णता मानवी कठण पडे छे तेने आ षट्गुण वृद्धिहानिनुं स्वरूप समजवुं मुश्केल पडे एवी आ वात छे. कहे छे-एक समयनी पर्यायमां षट्गुण वृद्धिहानि थाय छे. भले एक समयनी क्षायिक समकितनी के क्षायिक ज्ञाननी पर्याय हो, तो पण तेमां एक समयमां आ षट्गुण वृद्धिहानि थाय छे एवो जीवनो कोई अचिन्त्य अगुरुलघुत्व स्वभाव छे.
एक समयनी पर्यायमां षट्गुण वृद्धिहानि थाय छे ते आ प्रमाणेः- (१) अनंतगुण वृद्धि (२) असंख्यगुण वृद्धि (३) संख्यातगुण वृद्धि (४) अनंतभाग वृद्धि (प) असंख्यभाग वृद्धि अने (६) संख्यातभाग वृद्धि.
आ प्रमाणे हानिना छ बोलः (१) अनंतगुण हानि (२) असंख्यगुण हानि (३) संख्यातगुण हानि (४) अनंतभाग हानि (प) असंख्यभाग हानि अने (६) संख्यातभाग हानि.
आ प्रमाणे एक समयमां षट्गुण वृद्धिहानिरूपे अगुरुलघुत्व गुणनुं कोई सूक्ष्म परिणमन थाय छे अने ते केवळीगम्य छे.
त्यागोपादानशून्यत्वशक्तिमां एम कह्युं के द्रव्य-गुण-पर्यायमां कमी-वृद्धि थती नथी एवो एनो स्वभाव छे. एकेक गुणनी एकेक पर्यायमां घट-वध थती नथी. एक समयनी ज्ञाननी पर्यायमां, दर्शननी पर्यायमां, आनंदनी पर्यायमां, वीर्यनी पर्यायमां, अनंत चतुष्टयनी पर्यायमां ने सिद्धनी पर्यायमां कमी-वृद्धि थती नथी. भले अल्प पर्याय हो तो पण ते घट-वध रहित परिपूर्ण छे एम त्यां कह्युं छे. क्षयोपशम समकितनी पर्याय हो के क्षायिकनी पर्याय हो, मति-श्रुतज्ञान हो के केवळज्ञाननी पर्याय हो, चारित्रनी अल्प निर्मळ पर्याय हो के पूरण वीतरागतानी पर्याय हो, ते एकेक पर्याय पूर्ण द्रव्यने सिद्ध करे छे ने परना ग्रहण-त्यागथी शून्य घट-वध रहित छे, माटे पूर्ण छे. अहा! आवी सूक्ष्म गंभीर वात केवळीना शासन सिवाय कयांय नथी. अहाहा...! तुं केवडो मोटो छो! भगवान! तने तारी मोटपनी-प्रभुतानी खबर नथी. अहाहा...! जेनी प्रभुतामां कयांय घट-वध थती नथी एवो भगवान! तुं परिपूर्ण प्रभु छो.