अहाहा...! आ (-आत्मा) तो मोटो दरियो छे. असंख्य जोजनना विस्तारवाळो छेल्लो स्वयंभूरमण समुद्र तो साधारण छे. आत्मा तो अनंत अनंत भावथी भरेलो महासमुद्र छे. श्रीमद् राजचंद्रजीए भगवाननी वाणीनो महिमा करतां कह्युं छे केः-
... जिनेश्वर तणी वाणी जाणी तेणे जाणी छे.
हवे ॐध्वनि ज्यां आवी छे त्यां तेनी वाच्यवस्तु-अनंत अनंत स्वभावथी भरपुर भगवान आत्मानुं शुं कहेवुं?
भाई, आ शक्तिना वर्णनमां तो घणुं घणुं भर्युं छे; तेमांथी शक्ति अनुसार थोडुं थोडुं कहेवाय छे. कंकोत्रीमां लखे छे ने के-थोडुं लख्युं झाझुं करी मानजो ने मंडपनी शोभामां अभिवृद्धि करवा वहेलां वहेलां आवजो. तेम अहीं पण शक्तिना वर्णनमां थोडुं कह्युं झाझुं करी मानजो अने अंतर्द्रष्टि करी आत्मानी शोभा वधारजो. भाई! तारो आत्मा स्वस्वरूपमां-निज एकत्व-शुद्धत्वस्वरूपमां सदाय सुप्रतिष्ठित शोभारूप छे. अहा! आवो तेनो अगुरुलघुत्व स्वभाव छे तेने ओळखी तेमां ज अंतर्लीन थई परिणमे ते शोभा छे.
आ रूपाळुं शरीर, वस्त्र-आभूषण, धन-संपत्ति ने बाग-बंगला ए तो बधां जड पुद्गलरूप छे बापु! एनाथी कांई आत्मानी प्रतिष्ठा-शोभा नथी. ए तो बधां पुण्यकर्मने आधीन छे ने जोतजोतामां विलीन थई जाय छे, विखराई जाय छे. स्वस्वरूपमां प्रतिष्ठित एवो आत्मा-चैतन्यबिंब प्रभु-निज चैतन्यप्रकाशथी स्वयं शाश्वत शोभायमान छे. अहाहा...! तेने ओळखी, अंतरद्रष्टि वडे त्यां ज लीन थई रहेवुं ते पर्यायनी वास्तविक शोभा छे. अहाहा...! अंतरात्मा थई परमात्मा तुं था एनाथी बीजी कई शोभा? अहाहा...! भगवान आत्मा-चैतन्य महाप्रभु अनादिअनंत पोताना स्वस्वरूपमां-चिद्रूपस्वरूपमां ज प्रतिष्ठित छे, कोई बीजा (शरीरादि) वडे तेनी प्रतिष्ठा नथी. आवा निज स्वरूपना आलंबने पर्यायमां निर्मळ रत्नत्रयरूप नवी शोभा-प्रतिष्ठा प्रगटे छे. आनुं नाम धर्म छे. अहो! आवो आत्मानो अचिन्त्य अगुरुलघुत्व स्वभाव छे जे द्रव्य-गुण-पर्यायमां व्यापक थाय छे.
जुओ, अहीं आ शक्तिना अधिकारमां व्यवहारनी कांई वात ज लीधी नथी. व्यवहारना रसवाळाने- पक्षवाळाने तो आ वात बेसे नहि. भाई! राग आवे तेनुं ज्ञान करवुं ते व्यवहार छे. ए ज्ञान तो पोतानी पर्यायमां पोताथी थाय छे, रागने कारणे नहि. हवे आमां लोको भडके छे. एम के-आ निश्चय छे, एकांत छे-एम कही तेओ भडके छे, ने भडकावे छे. पण भाई, आ तो सम्यक् एकांत छे बापु! सम्यक् एकांतनुं ज्ञान थाय तेने पोतानी पर्यायमां अपूर्णता छे तेनुं ज्ञान थाय छे; आनुं नाम अनेकान्त छे. हवे आमां वांधा उठावी तकरार करे, पण शुं थाय? (वस्तु ज आवी छे एमां शुं थाय?)
हा, पण घरबार, कुटुंब-परिवार, दुकान-धंधा वगेरे त्यागवां पडे ने! उत्तरः– अरे भाई, रागनो त्याग पण ज्यां आत्माना स्वरूपमां नथी त्यां परना त्यागनी शी कथा? घरबार, कुटुंब-परिवार इत्यादि छोडयां एटले संसार छोडयो एम तें मान्युं छे पण ते मान्यता यथार्थ नथी. वास्तवमां तो स्वस्वरूपमां लीनता-रमणता थये घरबार इत्यादि पर पदार्थो संबंधी ममत्व ने आसक्ति मटी जाय छे, थतां-उपजतां नथी तो ते छोडया एम कथनमात्र व्यवहारथी कहेवामां आवे छे. अरे! लोकोने अंदर निर्विकल्प अनुभवनी दशारूप-अतीन्द्रिय आनंदनी दशारूप धर्म छे तेनी खबर नथी, ने एकला बहारना त्याग वडे धर्म थवानुं माने छे, पण ते मान्यता यथार्थ नथी.
सोळमी त्यागोपादानशून्यत्वशक्तिनुं स्वरूप तो ख्यालमां आवे एवुं छे, पण आ सत्तरमी अगुरुलघुत्वशक्तिनुं स्वरूप तो आगमगम्य एटले आगमथी प्रमाणित करवा योग्य छे, ते तर्कगोचर नथी, केवळज्ञानमां प्रत्यक्ष थवा योग्य छे. अहाहा...! एक समयमां-एक समयनी पर्यायमां, कहे छे, छ प्रकारे वृद्धि ने छ प्रकारे हानि एम बारेय बोल एक साथे लागु पडे छे. दरेक गुणनी, दरेक समयनी दरेक पर्यायमां षट्गुणवृद्धिहानि थाय छे. एक समयमां षट्गुण