९६ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११ वृद्धि, ने बीजा समयमां षट्गुण हानि थाय एम वात नहि, प्रत्येक पर्यायमां बारेय बोल एक साथे लागु पडे छे. भगवान सर्वज्ञ परमेश्वरे एक समयमां षट्गुणवृद्धिहानि प्रत्येक पर्यायमां जोया छे. अहाहा...! आवो-षट्गुण वृद्धिहानिरूप थतो-परिणमतो, स्वरूप-प्रतिष्ठत्वना कारणभूत एवो आत्मानो कोई अचिन्त्य अद्भुत अगुरुलघुत्व स्वभाव छे. भाई, छद्मस्थना ज्ञानमां आवी जाय एवी आ वात नथी. जो छद्मस्थना ज्ञानमां बधुं आवी जाय तो केवळज्ञाननो महिमा शुं? केवळज्ञानमां जणाय ते बधुं छद्मस्थ न जाणी शके. हा, स्वहित अर्थे प्रयोजनभुत होय तेने तो छद्मस्थ ज्ञानी-सम्यग्ज्ञानी निःशंकपणे जाणे छे, तथापि आ अगुरुलघुत्व गुणनुं सूक्ष्म परिणमन तो केवळ केवळज्ञान-गोचर छे.
अहा! दरेक गुणमां अगुरुलघुपणुं छे, तेनी दरेक पर्यायमां पण अगुरुलघुपणु आवे छे. आ अति सूक्ष्म विषय छे. ज्ञाननी केवळज्ञाननी पर्याय हो के मति-श्रुतज्ञाननी पर्याय हो, प्रत्येक पर्यायमां षट्गुण वृद्धिहानि थाय छे. निगोदना जीवने अक्षरना अनंतमा भागे ज्ञाननो उघाड छे; तेमां पण आ षट्गुण वृद्धिहानि थाय छे, ने केवळीने अनंतज्ञान-केवळज्ञान छे, तेमां पण षट्गुण वृद्धिहानि थाय छे. एमां क्रम नथी-एक समये वृद्धि अने बीजा समये हानि एवुं नथी. अहाहा...! एक ज समयमां अनंतगुण वृद्धि, अनंतगुण हानि; असंख्यगुण वृद्धि, असंख्यगुण हानि; संख्यगुण वृद्धि, संख्यगुण हानि; अनंतभाग वृद्धि, अनंतभाग हानि; असंख्यभाग वृद्धि असंख्यभाग हानि; संख्यभाग वृद्धि, संख्यभाग हानि-एम बारेय बोल एक साथे होय छे. अहाहा...! भगवान आत्मानो अगुरुलघुत्व स्वभाव अने तेनुं पर्यायमां सूक्ष्म परिणमन जेवुं भगवाने जोयुं छे तेवुं कह्युं छे. अहीं तेनुं आ सामान्य कथन कर्युं छे. शास्त्रमां कह्युं छे के आ षट्गुण वृद्धिहानिनुं स्वरूप छे ते श्रुतज्ञानगम्य नथी, आगमगम्य छे. तेमां तर्क न उठाववो, केमके तर्कथी बेसे एवो आ विषय नथी.
आ षट्स्थानपतित वृद्धिहानिनुं स्वरूप ‘गोम्मटसार’ शास्त्रमांथी जाणवायोग्य छे. अविभाग परिच्छेदोनी संख्यारूप षट्स्थानोमां पडती-समावेश पामती-वस्तुस्वभावनी वृद्धिहानि जेनाथी थाय छे अने जे वस्तुने सदा स्वरूपमां टकवानुं कारण छे एवो कोई आश्चर्यकारी गुण आत्मामां छे; तेने अगुरुलघुत्वशक्ति कहे छे. अविभाग प्रतिच्छेद एटले शुं? के अंशने छेदतां छेदतां जेना बे भाग न पडे एवा एक अंशने अविभाग प्रतिच्छेद कहेवामां आवे छे. निगोदना जीवना अक्षरना अनंतमा भागप्रमाण ज्ञानपर्यायमां पण आवा अनंत अविभाग प्रतिच्छेद छे. अरे भाई! आ कोई अचिन्त्य अलौकिक वात छे एम लक्ष करी तेनो महिमा तो कर. आ तो-
भाग्यवान कर वावरे, एनी मोतीये मूठियुं भराय.
-आवी अलौकिक वात छे. आस्थाथी, श्रद्धाथी, उत्साह ने उमंग लावी आ कबुले-स्वीकारे ते न्याल थई जाय एवी आ चीज छे.
अहाहा...! षट्स्थानपतित वृद्धिहानिरूपे परिणमित छे छतां द्रव्यना स्वरूप-प्रतिष्ठत्वना कारणरूप आ शक्ति विशिष्ट गुणस्वरूप छे. एटले शुं? के भगवान आत्मा-अनंतगुणनिधान प्रभु-सदाय पोताना स्वरूपमां ज प्रतिष्ठित रहे छे-टकी रहे छे; ते पोताना स्वरूपथी पडीने कदीय पररूप-जडरूप थई जतो नथी, तेनो कोई गुण अन्यगुणरूप थई जतो नथी, तथा तेना अनंत गुण द्रव्यथी छूटा पडी विखराई जता नथी, तेम ज द्रव्यनी-आत्मानी कोई पर्याय अन्यपर्यायरूपे थई जती नथी. सौ पोतपोताना स्वरूपमां टकी रहे छे. अहो! स्वरूपमां प्रतिष्ठित रहेवारूप आत्मानो आ कोई अलौकिक स्वभाव छे. स्वरूप घटे नहि, वधे नहि, स्वरूपनो कोई अंश (गुण) कदी छूटे नहि, अन्यरूप थाय नहि, ने नवुं कांई तेमां आवे नहि. आवो अगुरुलघुस्वभावी भगवान आत्मा छे तेने ओळखी द्रष्टिगत करतां पर्यायमां निर्मळता-निर्मळता प्रगटे छे अने आ धर्म छे. गजबनी अगम-निगमनी वातो बापु! ल्यो,
आ प्रमाणे अहीं अगुरुलघुत्वशक्तिनुं वर्णन पूरुं थयुं.