कार्य छे. जैन तत्त्वमीमांसामां पण पं. श्री फूलचंदजीए आ वात लीधी छे. ए तो द्रव्यनी पूर्व पर्यायनुं ज्ञान कराववा त्यां वात करी छे. अहीं ए वातने व्यवहार गणी उडावी दीधी छे. भाई! उत्पादव्ययध्रुवत्व ए वस्तुनो-द्रव्यनो स्वभाव छे. अहाहा...! द्रव्यनी एकेक पर्यायमां सहज स्वतंत्र उत्पादव्यय समये समये थाय छे. अहा! बाह्य निमित्तना कारणे पर्यायनो उत्पाद थाय छे एम नथी, ने तेमां पूर्व पर्यायनुं कारणपणुं छे एम पण नथी. पोताना क्रमे प्रगट थयेली पर्याय पोते ज तेना उत्पादनुं वास्तविक कारण छे. बाह्य निमित्तने, व्रतादि व्यवहारने ने पूर्व पर्यायने कारण कहेवुं ते व्यवहार छे बस. तथा वर्तमान एक गुणनी पर्याय बीजी (बीजा गुणनी) पर्यायनुं वास्तविक कारण नथी. सम्यग्दर्शनना कारणे सम्यग्ज्ञान थाय छे एम नथी. (विवक्षाथी एम कहेवुं ए बीजी वात छे).
भगवान आत्मा सच्चिदानंद प्रभु त्रिकाळ ध्रुव... ध्रुव... ध्रुव छे. तेनी एकेक शक्ति पण ध्रुव छे. ते शक्ति अने शक्तिवान द्रव्यना भेदनुं लक्ष छोडी अभेदनी द्रष्टि करवाथी, अहाहा...! अभेद शुद्ध चैतन्यना तळमां स्पर्श करवाथी, स्पर्श करवाथी एटले के ध्रुवनी सन्मुख थई परिणमवाथी निर्मळ पर्यायनो सहज ज पोताना कारणे उत्पाद थाय छे. त्यारे पूर्व पर्यायनो व्यय पण पोताथी स्वतंत्र थाय छे. कोई कोईना कारणे छे एम छे ज नहि. द्रव्य-गुण ध्रुव एकरूप सद्रश रहे छे ते पण पोताथी ज छे. अहो! आवुं अलौकिक वस्तुस्वरूप छे भाई! साधकने वच्चे शुभराग आवे ते व्यवहार हो भले, पण निर्मळ पर्याय उत्पन्न थवानुं ते कारण नथी; ने पूर्व पर्याय पण वास्तविक कारण नथी. आ बधुं झीणुं पडे तोय जाणवुं पडशे हों. आ जगतना हीरा-माणेक-मोती, बाग-बंगला-बगीचा, स्त्री-पुत्र-परिवार ने आ रूपाळुं शरीर ए तो कांई नथी भाई! ए तो बीजी चीज बापु! एने जाणतां कांई सुख न थाय, केमके एमां सुख नथी; स्वसन्मुख थईने स्व नाम निज शुद्धात्मस्वरूपने जाणतां सुख थाय छे, केमके तेमां सुख छे, अरे ते (-पोते) सुखस्वरूप ज छे. समजाणुं कांई...?
निमित्तथी उपादाननुं कार्य थाय, व्यवहारथी निश्चय थाय अने पर्याय क्रमनियत नहि पण नियत-अनियत छे. एम आ विषयो पर वर्तमानमां घणो विरोध चाले छे. अरे भाई! आ विषयोनुं यथार्थ स्वरूप समजी विरोध मटाडवा जेवुं छे बापु!
पंचास्तिकायनी गाथा १पपमां नियत-अनियतनी वात आवी छे. आ गाथामां स्वसमय अने परसमयनी व्याख्या करवामां आवी छे. त्यां स्वभावलीन परिणामने नियत कहेल छे, अने विभाव परिणामने अनियत कहेल छे. अनियत एटले परिणाम क्रमनियत नहि थतां आगळ-पाछळ थाय छे एवो अर्थ नथी, पण अनियत एटले स्वभावमां अनवस्थित, स्वभावमां लीन नहि एवी विभाव पर्याय एम त्यां अर्थ छे.
वळी प्रवचनसारमां ४७ नयनो अधिकार छे. ते ४७ धर्मो आत्मामां एकी साथे छे. त्यां पण काळनय, अकाळनय कह्या छे.
‘आत्मद्रव्य काळनये जेनी सिद्धि समय पर आधार राखे छे एवुं छे.’ वळी, आत्मद्रव्य अकाळनये जेनी सिद्धि समय पर आधार राखती नथी एवुं छे.’ हवे आमां अकाळनो अर्थ पर्याय क्रमअनियत अर्थात् आगळ-पाछळ थाय छे एम कयां छे? पर्याय तो क्रमनियत स्वकाळे ज उत्पन्न थाय छे, पण साथे स्वभाव अने पुरुषार्थ होय छे ते बताववा माटे त्यां अकाळनयनी वात करी छे. वस्तुतः एक ज पर्याय एकी साथे काळनय अने अकाळनयनो विषय थाय छे. त्यां काळने गौण करी पुरुषार्थ अने स्वभावनी विवक्षा होय त्यारे ते अकाळनयनो विषय थाय छे. आम कोई पर्याय आगळ-पाछळ थाय छे एम त्यां अभिप्राय छे ज नहि. वास्तवमां दरेक पर्याय क्रमबद्ध पोताना स्वकाळे ज उत्पन्न थाय छे.
अहा! जेम द्रव्यना बधा गुण एक साथे ज द्रव्यमां त्रिकाळ सर्व प्रदेशे व्यापक छे, तेमां कदीय घट-वध थती नथी; तेम द्रव्यना अनादिअनंत प्रवाहक्रममां त्रणेकाळनी प्रतिसमय प्रगट थनारी पर्यायोनो स्वकाळ नियत छे. भाई! त्रणेकाळनी पर्यायोनो प्रवाह द्रव्यमां नियत पडयो छे, पर्यायोनी क्रमनियत धारामां कदी भंग पडतो नथी. अहा! आवुं क्रम-अक्रमवर्तीपणुं ए द्रव्यनो स्वभाव छे. हवे आमां कोई वळी कहे छे-क्रमवर्तीपणुं एटले पर्यायो एक पछी एक थाय बस एटलुं ज, पण क्रमे प्रगट थती पर्यायो अमुक निश्चित ज थाय एम नहि, पण आ मान्यता बराबर नथी. क्रमवर्तीपणुं एटले द्रव्यमां पर्यायो एक पछी एक थाय एटलुं ज नहि, प्रवाहक्रममां कया समये कई पर्याय थाय ते पण नियत-निश्चित ज छे. जेम सात वार (सोम, मंगळ वगेरे) निश्चित क्रमबद्ध छे तेम द्रव्यनी त्रणकाळनी पर्यायो