१००ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११ पण निश्चित क्रमबद्ध छे. ‘प्रमेयकमलमार्तंड’ मां ‘क्रमभाव’ने समजावतुं नक्षत्रोनुं द्रष्टांत पण आ ज वात सिद्ध करे छे.
समयसार, सर्वविशुद्धज्ञान अधिकारनी गाथा ३०८थी ३११नी टीकामां आचार्यदेवे आ वात खुल्ली करी छे. त्यां अति स्पष्ट कह्युं छे के-जीव ने अजीव बधा द्रव्यो पोताना क्रमनियमित परिणामोथी उपजे छे. क्रमनियमित कहो के क्रमबद्ध कहो-एक ज वात छे. भाई! ध्रुव रहीने क्रमनियमित भावे परिणमवानो प्रत्येक द्रव्यनो स्वभाव छे. आखुं द्रव्य ज आवुं छे. अहा! द्रव्यना आवा क्रम-अक्रमवर्तीपणाना स्वभावने यथार्थ जाणे तो पर्यायो आडी- अवळी-आगळपाछळ थाय, निमित्तथी थाय ने निमित्तथी बदली शकाय-एवी उंधी-विपरीत द्रष्टि मटी जाय अने तेने स्वसन्मुख-द्रष्टि वडे निर्मळ परिणमननी धारा शरू थाय छे. आम द्रव्यमां थती पर्यायो स्वकाळे क्रमबद्ध प्रगट थाय छे एम निर्णय करनारनुं जोर स्वद्रव्य भणी, शुद्ध एक ज्ञायकस्वभाव प्रति वळे छे अने तेने निर्मळ परिणमननी क्रमवर्ती धारा उल्लसे छे. आ धर्म छे.
प्रश्नः– समयसार कळशटीकामां कळश २प२मां त्रिकाळी द्रव्यने स्वकाळ कहेल छे ते शुं छे? उत्तरः– समयसार कळशटीकामां कळश २प२मां त्रिकाळी द्रव्यने स्वकाळ कहेल छे. वर्तमान पर्यायनो भेद पाडवो तेने त्यां परकाळ कहेल छे. त्यां कह्युं छेः- “स्वद्रव्य एटले निर्विकल्पमात्र वस्तु, स्वक्षेत्र एटले आधारमात्र वस्तुनो प्रदेश, स्वकाळ एटले वस्तुमात्रनी मूळ अवस्था, स्वभाव एटले वस्तुनी मूळनी सहज शक्ति; परद्रव्य एटले सविकल्प भेद-कल्पना, परक्षेत्र एटले जे वस्तुनो आधारभूत प्रदेश निर्विकल्प वस्तुमात्ररूपे कह्यो हतो ते ज प्रदेश सविकल्प भेद-कल्पनाथी परप्रदेश बुद्धिगोचररूपे कहेवाय छे, परकाळ एटले द्रव्यनी मूळनी निर्विकल्प अवस्था ते ज अवस्थान्तर भेदरूप कल्पनाथी परकाळ कहेवाय छे, परभाव एटले द्रव्यनी सहज शक्तिना पर्यायरूप अनेक अंश द्वारा भेद-कल्पना, तेने परभाव कहेवाय छे.’ जुओ बहारना अन्यद्रव्यनी पर्याय ते परकाळ छे ए वात तो कयांय दूर रही गई, अहीं तो द्रव्यनी पोतानी अवस्थाने ज भेदकल्पनाथी परकाळ कहे छे. भेद उपरथी द्रष्टि उठाववी छे ने! तो परमार्थे जे स्वद्रव्य छे ते ज स्वक्षेत्र, स्वकाळ, स्वभाव छे एम कहीने अभेदद्रष्टि करावी छे. अहा! द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावना चार भेद पण खरेखर त्रिकाळी वस्तुमां नथी. हवे आम छे त्यां पर्याय निमित्तथी- परद्रव्यथी थाय एवी पराश्रयनी वातने अवकाश ज कयां छे? वास्तवमां प्रत्येक द्रव्यनो उत्पादव्ययध्रुवत्व स्वभाव छे, अने तेथी द्रव्यनी प्रत्येक पर्याय पोताथी स्वतंत्र प्रगट थाय छे, तेनुं कोई परद्रव्य कारण नथी, पूर्व पर्याय पण तेनुं कारण नथी. द्रव्य पोते पोताना स्वभावथी ज एक अवस्थाथी पलटीने नियत अवस्थान्तररूप थाय छे. आ तो एकलुं अमृत छे भाई! आनो अंतरमां निर्णय करे तेने भेदनी द्रष्टि तथा मारी अवस्था कोई बीजो पलटावी देशे एवी पराश्रयनी द्रष्टि छूटी जाय छे, अने अभेद एक ज्ञायकनी द्रष्टि थई निर्मळ निर्मळ परिणमन थाय छे. आवी वात! समजाणुं कांई...?
अहाहा...! वस्तु त्रिकाळी भगवान आत्मा छे ते गुण-पर्यायना भेदथी रहित, कर्म-नोकर्मथी रहित अभेद एकरूप ज्ञायक प्रभु छे. तेमां पूर्व पर्यायनो व्यय थई नवी पर्यायनो उत्पाद थाय तथा वस्तु चिन्मात्र सदा एकरूप सद्रश रहे तेवो तेनो उत्पादव्ययध्रुवत्व स्वभाव छे. तेमां परद्रव्यनुं-निमित्तनुं-कर्मनुं कांई कारणपणुं नथी. अरे, तेनी एक शक्तिनुं कारण बीजी शक्ति नथी, केमके एकेक शक्तिमां उत्पादव्ययध्रुवत्वनुं रूप छे; अर्थात् प्रत्येक शक्तिनुं पोतानुं उत्पादव्ययध्रुवत्व पोताथी छे. अहा! आवा पोताना क्रम-अक्रमवर्ती स्वभावने ओळखतां गुण-पर्यायना भेद उपरथी द्रष्टि खसीने, द्रष्टि अभेद एक ज्ञायकस्वभाव उपर थंभे छे, ने ते द्रष्टिमां क्रमे निर्मळ पर्यायनी उत्पत्ति थाय छे. आ साधक दशा अने आ मोक्षमार्ग छे. हवे लोको पोताना अंतरंग स्वरूपने जाणवा दरकार करे नहि ने बहारना क्रियाकांडमां मोक्षमार्ग मानी रच्या रहे, पण भाई! एवी क्रियाकांडना शुभ विकल्प तो एणे पूर्वे अनंत वार कर्या छे. एमां नवुं शुं छे? अपूर्व शुं छे? छहढालामां आवे छे ने के-
पै निज आतमज्ञान विना, सुख लेश न पायो.
अरे भाई! तुं अंदर जो ने बापु! त्यां अंदर तळमां एकलो (निर्भेळ) आनंद भर्यो छे. अहाहा...! जेम समुद्रना तळिये सोनुं, हीरा, मोती पडयां छे तेम भगवान आत्माना तळमां ज्ञान, दर्शन, आनंद, शांति, स्वच्छता, प्रभुता इत्यादि अनंत गुणरत्नोनो भंडार भर्यो छे. अहाहा...! ते दरेक गुण-शक्ति, कहे छे, पोताना उत्पादव्ययध्रुवत्व स्वभावने कारणे पोते पोतानुं कार्य करे छे, तेमां बीजुं कोई कारण नथी. द्रव्यद्रष्टिवंतने सम्यग्दर्शननी निर्मळ पर्यायनो उत्पाद थाय छे