ते स्वकाळे पोताथी थाय छे तेमां बीजुं-कर्मनो उपशमादि वास्तविक कारण नथी. ज्ञानना उत्पाद-व्यय-ध्रुव पोताथी छे, परथी के वाणीना कारणे छे-एम नथी. अहाहा...! अंतरसन्मुख परिणमता ज्ञानस्वभाव पोते ज विशेष ज्ञानपणे परिणमे छे, वाणीना कारणे ज्ञाननी उत्पत्ति थाय छे एम नथी. आवी वात!
प्रश्नः– तो पछी जिनवाणी सांभळवानुं शुं प्रयोजन छे? उत्तरः– अरे भाई! वाणीना कारणे ज्ञाननी उत्पत्ति न थाय, पण ज्ञानस्वभावी निज ज्ञायकनी सन्मुख थईने परिणमता ज्ञान थाय छे एम समजवुं ए जिनवाणी सांभळवानुं वास्तविक प्रयोजन छे. तेथी जिज्ञासुने बहु विनय ने भक्तिपूर्वक ज्ञानी पासेथी सत्ना श्रवणनो प्रेम अने उत्साह आवे छे. ‘वाणीथी ज्ञान थतुं नथी माटे सांभळवानुं शुं काम छे?’ एवी स्वच्छंदतानो भाव तेने होतो नथी. सत्ना श्रवणकाळे पण तेने भाव तो अंदर पोतानो ज घूंटाय छे. तेनुं वलण अने वजन निमित्त पर न होतां, ज्ञानी जे द्रव्यस्वभाव बतावे छे तेना पर होय छे. आ ज वाणी सांभळवानुं प्रयोजन छे. ज्ञानीने पण वारंवार सत्ना श्रवणनो भाव आवे छे. तेमां तेनी रुचिनुं जोर एक निज ज्ञायकस्वभाव पर होय छे, निमित्त पर के राग पर तेनी रुचिनुं जोर होतुं नथी. जेने आत्मस्वभावमां ज रुचिनुं जोर वळी जाय तेने वाणी सांभळवानुं प्रयोजन सिद्ध थाय छे. समजाणुं कांई...?
भाई, तारे बीजाथी-निमित्तथी शुं काम छे? अंदर तारी ज्ञानमात्र वस्तुमां एक साथे अनंत गुणो ध्रुवपणे रह्या छे. अहा! अनंत गुणनुं अभेद एकरूप त्रिकाळी स्वद्रव्य-तेमां तुं द्रष्टि कर तो अनंत गुणनी निर्मळ पर्यायो प्रगट थशे. अहाहा...! स्वद्रव्यना आश्रयमां जतां ज ज्ञान, आनंद, श्रद्धा, स्वच्छता, प्रभुता, वीर्य इत्यादि बधी अनंत शक्तिओ निर्मळपणे उल्लसीने पर्यायमां व्यक्त थाय छे. अहा! ते स्वसंवेदनमां-स्वानुभवमां अनंत शक्तिनी निर्मळता एक साथे समाय छे. अहो! आवो अद्भुत चैतन्य गुणरत्नाकर प्रभु तुं छो, अंदर नजर करतां ज सम्यग्दर्शन आदि अपूर्व अपूर्व रत्नो प्रगट थाय छे. हवे अंदर ढंढोळे नहि, ने बहारमां-रागनी क्रियामां ने निमित्तमां-फांफां मारे. पण तेथी शुं थाय? धूळेय न थाय. अंतरसन्मुखताना पुरुषार्थ विना बधुं ज थोथेथोथां छे.
जुओ, स्वरूपनी रचनाना सामर्थ्यरूप आत्मामां एक वीर्यशक्ति त्रिकाळ छे. तेनुं कार्य शुं? तो कहे छे- स्वरूपस्थित दर्शन, ज्ञान, चारित्र, आनंद इत्यादि गुणोनी निर्मळ पर्यायोनी रचना करवी ते तेनुं कार्य छे. जुओ, वीर्यशक्तिनुं सामर्थ्य! अहाहा...! आत्मा पोते स्ववीर्यथी-अंतःपुरुषार्थ वडे पोतानी सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी निर्मळ पर्यायने रचे छे. निर्मळ पर्यायनी रचना थाय तेमां स्ववीर्यने छोडी कोई परवस्तु कारण नथी.
आत्मा पोते स्ववीर्यथी-जाग्रत थयेला अंतःपुरुषार्थथी ज कर्ता थईने निर्मळ सम्यग्दर्शनादिरूप कार्यने रचे छे. ओहो! पोतानी निर्मळ पर्यायोने रचनारो आत्मा पोते ज अनंतवीर्यवान ईश्वर छे. आवी वात!
प्रश्नः– हा, पण सम्यग्दर्शन आदि पर्यायो क्रमबद्ध स्वकाळे प्रगट थाय छे एम आप कहो छो, तो पछी वीर्यशक्तिनुं शुं काम? (एम के वीर्य नाम पुरुषार्थनुं एमां शुं काम रह्युं?)
समाधानः– एम नथी भाई! पर्यायो क्रमबद्ध प्रगट थाय छे माटे वीर्यशक्ति कांई कार्यकारी नथी एम नथी. सम्यग्दर्शन आदि पर्यायो तो क्रमबद्ध स्वकाळे प्रगट थाय छे ए बराबर छे, पण त्यारे वीर्यशक्तिना कार्यरूप अंतःपुरुषार्थ पण भेगो ज होय छे. ओहो! निर्मळ रत्नत्रयनो स्वकाळ कांई स्वरूपसन्मुखता ने स्वरूपलीनता- स्वरूपरमणताना अंतःपुरुषार्थ विनानो होय छे एवुं नथी. वास्तवमां निर्मळ रत्नत्रयना स्वकाळमां अनंत गुणनी निर्मळ पर्यायो भेगी ज होय छे, अंतःपुरुषार्थ पण भेगो होय ज छे. पर्यायो स्वकाळे क्रमबद्ध प्रगट थाय छे ए एक विवक्षाथी वात छे, पण तेथी कांई ते काळे पुरुषार्थनो अभाव होय छे एवुं नथी. ज्ञानमात्र भावना परिणमनमां अनंत गुणनी पर्यायो एकी साथे उल्लसे छे एम यथार्थ समजवुं जोईए; आ अनेकान्त छे. समजाणुं कांई...?
अरे, परमाणुमां पण पोतानी वीर्यशक्ति छे, जेथी स्पर्श, रस, गंध, वर्ण आदिगुणो पोतपोताना कार्यनी रचनारूपे परिणमे छे. दरेक गुण पोताना कारणे पोताना कार्यरूपे परिणमे छे; परना कारणे ते कार्य थतुं नथी. एक छूटो परमाणु