Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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१०६ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११

द्रव्यना स्वभावभूत ध्रौव्य-व्यय-उत्पादथी आलिंगित अस्तित्वमात्रमयी परिणामशक्ति छे. ध्रौव्य-व्यय- उत्पादने आलिंगन करवुं ए द्रव्य-स्वभाव छे. द्रव्य पोताना गुणपर्यायरूप धर्मोने चुंबे छे, पण द्रव्य परने चुंबतुं नथी. तेथी कर्मे जीवने हेरान कर्यो छे ए मान्यता बराबर नथी; केमके कर्मनो उदय जीवना विकारने अडतो नथी, ने जीवनो विकार कर्मना बंधने अडतो नथी. जीव पोताना उलटा परिणमननी योग्यताथी चार गतिमां रखडे छे. अहा! तारी अशुद्धता पण मोटी अने शुद्धता पण मोटी-एम अनुभवप्रकाशमां कह्युं छे. पोतानी अशुद्धताथी जीव रखडे छे, कर्मना कारणे रखडे छे एम नथी. अहा! तीर्थंकरदेवनी ॐ वाणी जीवे अनंत वार सांभळी छे, पण एने तत्त्वद्रष्टि थई नहि, पोताना परिणाम द्रव्य सन्मुख वळ्‌या नहि ते तेनो पोतानो दोष छे, तेमां कर्मनो उदय बीलकुल कारण नथी. (कर्मनो उदय तो निमित्तमात्र छे).

चिद्दविलास पा. ३३ उपर परिणामशक्तिना वर्णनमां कह्युं छे के-“एक अभेद वस्तुमां सर्व सिद्धि छे, जेम चंद्र अने चंद्रनो प्रकाश एक ज छे. सामान्यताथी निर्विकल्प छे; विशेषताथी शिष्यने प्रतिबोध करवामां आवे त्यारे जेम जेम शिष्य, गुरुना प्रतिबोधवाथी गुणनुं स्वरूप जाणी जाणीने विशेष भेदी थतो जाय तेम तेम ते शिष्यने आनंदना तरंग उठे, ते समये वस्तुनो निर्विकल्प आस्वाद करे. आ कारणे गुण-गुणीनो विचार योग्य छे. गुणना विशेषने (परिणाम) कह्या छे; आ परिणामथी ज उत्पाद-व्यय वडे वस्तुनी सिद्धि छे एम कहीए छीए. ” आम भेद द्वारा अभेदनुं ज्ञान कराववानुं प्रयोजन छे.

आ शक्तिनुं परिणमन द्रव्यमांथी उठे छे, गुणमांथी नहि, केमके गुण द्रव्यना आश्रये छे, गुणना आश्रये गुण नथी. वळी गुणपर्यायवाळुं द्रव्य छे एम कह्युं छे त्यां पर्यायवाळुं द्रव्य ज कह्युं (पण) गुण न कह्यो. आम गुणभेदनी वासना मटाडी द्रव्यद्रष्टि करावी छे.

प्रश्नः– जो एम छे तो आ शक्तिओने जुदी जुदी समजवानी कसरत शुं काम करवी? उत्तरः– अरे भाई! आ शक्तिओ यथार्थ समजे तो अंतरमां आनंदना तरंग उछळे एवी स्वभावद्रष्टिनो पुरुषार्थ जाग्रत थाय छे. आ समजवुं ते खाली ‘कसरत’ नथी, पण अनंत काळनो थाक उतारवाना पुरुषार्थनो मारग छे बापु! एकेक शक्तिने यथार्थपणे समजी शक्तिवान द्रव्यनी द्रष्टि करे त्यां अभेद एक ज्ञानमात्र वस्तु आत्मानुं परिणमन थाय छे ने भेगी तेमां अनंती शक्तिओ एक साथे उछळे छे. आ रीते अनंत गुणथी अभेद निज आत्मवस्तुनी द्रष्टि कराववा आ शक्तिओनुं वर्णन छे. वस्तु-आत्मा स्वभावथी अनेकांतमय केवी रीते छे अर्थात् तेमां अनंत धर्मो कई रीते छे ते स्पष्ट जाणवा-समजवा आचार्यदेवे अहीं शक्तिओनुं वर्णन कर्युं छे. त्यां भेदवासनामां न रोकावुं, केमके भेदना लक्षे सम्यग्दर्शन आदि निर्मळ पर्याय प्रगटती नथी. आवी वात!

हवे आवी तत्त्वज्ञाननी वात सूक्ष्म पडे एटले अत्यारे तो लोको बहारमां-स्थूळ रागमां रोकाई गया छे. व्रत करो, दया पाळो, तप करो, भक्ति करो-इत्यादि आचरणमां धर्म थवानुं मानी त्यां रोकाई गया छे. पण ए तो बधो शुभराग छे भाई! ए तो बंधनुं ज कारण छे. एनाथी तुं धर्म थवानुं माने ए तो मिथ्याभाव छे.

प्रश्नः– तो ज्ञानी पण दया, दान, व्रत, तप, भक्ति आदि आचरण करे छे ने? उत्तरः– अरे भाई! अस्थानना रागथी ने अशुभथी बचवा माटे ज्ञानीने दया, दान, व्रत आदिनो शुभराग आवे छे, पण तेने ते हेय माने छे. ज्ञानी तेने धर्म के धर्मनुं साधन मानता नथी. ज्ञानीनी परिणतिमां व्रतादि व्यवहार भले हो, छतां पण एनाथी जुदुं शुद्धतानुं परिणमन तेने अंतरंगमां वर्ते छे; ते शुद्धतामां तन्मय छे, ने रागमां अतन्मय छे. खरेखर तेने स्वभाव सन्मुखी उत्पाद-व्ययमां निर्मळता थई छे, ने तेमां रागनो प्रवेश नथी; राग तो भिन्न ज्ञेयपणे रही जाय छे, ने तेनुं ज्ञान स्वकाळमां समाय छे. राग ते चैतन्यनो स्वकाळ नथी, परकाळ छे, परपरिणति छे. अहाहा...! ज्ञान ने राग-बन्ने समकाळे ने समक्षेत्रे होवा छतां एक (-ज्ञान) स्वकाळ अने बीजो परकाळ. अहो! केवुं सूक्ष्म भेदज्ञान! आ तो अलौकिक वीतरागी विज्ञान भाई! जे ज्ञानीने प्रगट थयुं होय छे. अज्ञानी तो रागने उपादेय माने छे. आम व्रतादि होवा छतां ज्ञानी-अज्ञानीना अभिप्रायमां घणो फेर छे. आवी वात! समजाणुं कांई!

हवे केटलाक तो समज्या विना व्रत-पडिमा लई ले छे; बे, पांच, अगियार पडिमा-अरे, जो पडिमा पंदर होय तो अज्ञानी जीवो पंदर पडिमा पण लई ले. केमके तेमने पडिमाना स्वरूपनीय खबर नथी, ने निज चैतन्यवस्तुना