Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). 20 AmurtatvaShakti.

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२०-अमूर्तत्वशक्तिः १०७

स्वरूपनीय खबर नथी. अरे, तेओ तो बिचारा आंधळे-बहेरुं कूटे राखे छे. एक त्यागी कहेता हता के-में पडिमा लीधी छे तो खरी, पण पडिमा मारी पासे आवी छे के नहि एनी मने खबर नथी. ल्यो, तत्त्व समज्या विना आवुं बधुं बहारमां चाल्या करे छे; पण आ कोई मारग नथी भाई!

शास्त्रमां व्रत-अव्रतमां छाया-आतपनो फेर कह्यो छे ने? हा, कह्यो छे; शास्त्रमां एम कह्युं छे के तडके ऊभा रहेवा करता छांयामां ऊभा रहेवुं सारुं छे, अर्थात् अव्रत करतां व्रत सारुं छे, भलुं छे. पण कोने? के जेने अंतरमां शुद्ध अंतःतत्त्वरूप निज आत्मानुं भान थयुं छे, आनंदना अनुभवनी वृद्धि थई छे तेने अव्रतनो विकल्प छूटी व्रतनो विकल्प आवे छे, अने तेना ए (व्रतने) अव्रतनी दशा अपेक्षा सारो कह्यो छे. अहाहा...! जेने सम्यग्दर्शनपूर्वक आनंदनी धारा विशेषताए प्रगटी छे तेने पांचमा गुणस्थानमां व्रत-पडिमा लेवानो विकल्प उठे छे अने ते यथार्थ व्यवहार छे; पण अज्ञानीने ए वात लागु पडती नथी, केमके तेने यथार्थ व्रत (सम्यग्दर्शनपूर्वकना) छे कयां? (व्यवहाराभास छे). आ तो-

चोथा गुणस्थानवर्ती सर्वार्थसिद्धिना देव करतां पांचमां गुणस्थानवर्ती श्रावकने व्रतना विकल्प वखते पण अंदर शांतिनी विशेष धारा होय छे, अने तेना विकल्पने छाया कहेवामां आवी छे. खरेखर तो त्यां अंतरमां आनंदरसनी धारा प्रगटी छे ते खरी छाया छे. साथे व्रतादिनो विकल्प होय छे तेने व्यवहारथी उपचारमात्र छाया कहेवामां आवे छे. आवी वात छे. ल्यो,

अहीं आ प्रमाणे ओगणीसमी परिणामशक्तिनुं वर्णन पूरुं थयुं.

*
२० अमूर्तत्वशक्ति

‘कर्मबंधना अभावथी व्यक्त करवामां आवता, सहज, स्पर्शादिशून्य (-स्पर्श, रस, गंध अने वर्णथी रहित) एवा आत्मप्रदेशोस्वरूप अमूर्तत्वशक्ति!

अहाहा...! ज्ञानलक्षणथी लक्षित भगवान आत्मामां एक अमूर्तत्व नामनी शक्ति छे. शुं कीधुं? जे इन्द्रियग्राह्य नथी, अतीन्द्रियज्ञान द्वारा ज जे जाणवामां-अनुभवमां आवे छे एवाभगवान आत्मानो, कहे छे, अमूर्तत्व स्वभाव छे, कर्मबंधना अभावथी तेनुं व्यक्तरूपे परिणमन थाय छे. समस्त कर्मोनो अभाव थईने सिद्धदशा प्रगटे छे त्यारे साक्षात् पूर्ण अमूर्तपणुं व्यक्त-प्रगट थाय छे. अने चोथे गुणस्थाने जेटलो कर्मबंधनो अभाव छे एटलुं आ अमूर्तत्वशक्तिनुं परिणमन थाय छे. अहाहा...! अनंत गुणोनो समुदाय प्रभु आत्मा छे. तेनी सन्मुखनी द्रष्टि-द्रव्यद्रष्टि थतां अनंत गुणोनो एक-एक अंश पर्यायमां प्रगट थाय छे, अने त्यारे भेगी आ अमूर्तत्वशक्ति पण अंशे व्यक्तरूपे परिणमे छे.

अहा! रागथी खसीने त्रिकाळी शुद्ध द्रव्यनो आश्रय लेता अनंत गुणमां अंशे अमूर्तपणानुं व्यक्त परिणमन थाय छे, आत्मप्रदेशोरूप अमूर्तपणुं प्रगट थाय छे. एम आत्मा छे तो अमूर्त चीज, पण कर्मना संबंधथी तेने रूपी कहेवामां आवे छे. सम्यग्द्रष्टिने जे रागादि भाव छे तेने पण रूपी-मूर्त कहे छे. राग पुद्गलना परिणाम छे माटे ते रूपी छे. द्रव्यस्वभावनी द्रष्टिपूर्वक जेटली स्वरूपलीनता थाय छे तेटलो कर्मबंधनो अभाव थाय छे, ने तेटला प्रमाणमां रागना अभावरूप जे शुद्धत्व-परिणमन व्यक्त थाय छे ते अमूर्तत्वशक्तिनुं परिणमन छे. साधकने भले पूर्ण प्रगट न थाय तोपण अंशे अमूर्तत्वशक्तिनुं व्यक्तरूपे परिणमन थाय छे, अने ते परिणमन स्पर्श-रस-गंध- वर्णथी रहित होय छे.

आस्रव अधिकारमां आ वात लीधी छे. चोथा गुणस्थाने द्रव्यद्रष्टि थतां जेटला अंशे शुद्धि प्रगट थाय छे तेटला अंशे त्यां कंपननो अभाव थईने अजोगपणुं व्यक्त थाय छे. ते ज प्रमाणे अमूर्तत्वशक्तिनुं पण व्यक्त परिणमन चोथा गुणस्थानमां थाय छे. निष्क्रयत्वशक्तिनुं वर्णन हवे पछी आवशे. आत्मानो अनुभव थतां ज्ञानीने पर्यायमां अंशे निष्क्रियत्व शक्तिनुं परिणमन थाय छे, त्यां अकंपदशा थाय छे. आवी वात!

आ बधो अभ्यास करवो जोईए भाई! तिर्यंचने सम्यग्दर्शन थाय छे पण तेने बीजा शल्य होता नथी. (शरीरादिमां) एकत्वबुद्धिनुं एक ज शल्य होय छे अने ते थतां छूटी जाय छे. अहीं मनुष्यपणामां तो घणा