Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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१०८ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११ शल्य अने घणा बधा विपरीत आग्रह होय छे. माटे ते अनेकविध शल्यने दूर करवा सारु अनेक प्रकारे तत्त्वाभ्यास करी साचुं ज्ञान करवुं जोईए.

अहा! ज्ञानस्वरूपी आत्मा सदाय अमूर्त ज छे; अमूर्तत्व ए तेनो स्वभाव छे ने ते गुणपर्यायमां व्यापे छे; जेथी तेना गुणो अमूर्त अने पर्यायो पण अमूर्त छे. अरे भाई! ज्ञानमात्र भावमां मूर्तपणानो प्रवेश ज नथी, तेमां कर्मनो संबंध ने देहनो संबंध कयांय आवतो नथी. अहा! अशरीरी चैतन्यबिंब-बीनमूरत चिन्मूरत प्रभु-तेने मूर्त देहना संबंधथी ओळखवो ए तो कलंक छे, मिथ्याभाव छे. अरे भाई! पोतानी अनंत चैतन्यशक्तिमां भगवान आत्माए मूर्तपणाने-देहने, कर्मने ने रागादि विकारने कदी ग्रह्यां ज नथी; ए तो सदाय अमूर्तपणे शोभी रह्यो छे. हमणां पण शुद्धनयथी जोतां आत्मा कर्मना संबंध रहित अबद्ध-अस्पृष्ट अने रागना संबंध रहित छे. धर्मी जीव अंतर्द्रष्टि वडे पोताना आत्माने कर्मना संबंध वगरनो अमूर्त अनुभवे छे. अहाहा...! त्रिकाळी द्रव्य-भगवान आत्मा त्रिकाळ अमूर्त अने तेनी स्वभावद्रष्टिमां जे निर्मळ पर्याय प्रगटी ते पण अमूर्त-देह, कर्म अने वर्णादिभावोथी रहित छे. तथापि अत्यारे तो आत्मा कर्मना संबंधवाळो छे, देहवाळो छे, मूर्त छे, विकारी छे एम ज जे अनुभव्या करे छे ते आत्मा-अनात्माना विवेकरहित मिथ्याद्रष्टि छे.

तो शास्त्रोमां जीवने मूर्त पण कह्यो छे ने? हा, कह्यो छे; संसारदशामां जीवने मूर्त कर्मो साथे निमित्त संबंध छे तेथी तेनुं ज्ञान कराववा उपचारथी तेने मूर्त कह्यो छे; तोपण निश्चयथी जेनो सदाय अमूर्तस्वभाव छे अने उपयोगगुण वडे जे समस्त अन्य द्रव्योथी अधिक छे एवा जीवने वर्णादिरूप मूर्तपणुं जराय नथी. समयसार गाथा ६२मां, वर्णादि भावो साथे जीवनुं तादात्म्य माननारने कह्युं छे-“हे मिथ्या अभिप्रायवाळा! जो तुं एम माने के आ वर्णादिक सर्व भावो जीव ज छे”-अर्थात् जीव मूर्त ज छे, “तो तारा मतमां जीव अने अजीवनो कांई भेद रहेतो नथी.” वळी संसारी जीवो मूर्त छे एम जो तुं कहे तो मूर्त तो पुद्गल ज होय छे तेथी तारी मान्यतामां पुद्गल ज जीव ठर्यो, जुदो जीव तो रह्यो नहि; मोक्षदशामां पण मोक्ष तो पुद्गलनो ज थयो. माटे न्याय तो आ ज छे के मोक्षदशामां के संसारदशामां भगवान आत्मानो सदा अमूर्त-स्वभाव ज छे. (जुओ समयसार गाथा ६३-६४).

अहीं ‘कर्मबंधना अभावथी व्यक्त करवामां आवता... आत्मप्रदेशोस्वरूप अमूर्तत्वशक्ति’-एम कहीने त्रिकाळी शक्ति अने तेनी निर्मळ पर्याय बतावी छे; तेम ज संसारदशामां कर्मबंधनुं निमित्तपणुं छे एम पण बताव्युं छे. आत्माने संसारदशा छे त्यारे तेना निमित्तरूप कर्मनो संबंध पण छे, पण ते कृत्रिम उपाधिरूप छे, ने ते अभूतार्थ छे, जे जीव पोतानी अवस्थानी अशुद्धताने तथा तेना निमित्तने जेम छे तेम जाणी, तथा पोतानी शक्तिने ओळखी, शक्तिवान निज आत्मद्रव्यना आश्रये परिणमे छे तेने अशुद्धता टळी शुद्धता प्रगटे छे, ने त्यारे कर्मबंधना अभावपूर्वक आत्मप्रदेशो सहज-स्वाभाविक अमूर्तपणे व्यक्त थाय छे. आम सहज स्पर्शादिशून्य आत्मप्रदेशोस्वरूप अमूर्तिकपणुं त्रिकाळ छे ते पर्यायमां व्यक्त थाय छे. आवी वात! समजाणुं कांई...? ‘समजाणुं कांई...? ’ -एटले कई पद्धतिए कहेवाय छे तेनो ख्याल आवे छे के नहि? बाकी वास्तविक समजण करी अंतर-अनुभव करे ए तो न्याल थई जाय, एने आत्मा प्रत्यक्ष थई जाय एवी आ वात छे

अहा! चैतन्यमूर्ति प्रभु आत्मा सदाय अमूर्त छे, ने आ शरीर तो मूर्त ज छे. अत्यारे पण बन्नेनां लक्षण जुदां छे. अहा! आम लक्षणभेद वडे बन्नेनी भिन्नता जाणीने हे भाई! तुं मूर्त शरीरनो पाडोशी थई जा. अहाहा...! जेवा सिद्ध प्रभु अमूर्त, तेवो ज तुं अमूर्त छो. माटे मूर्त शरीरनी क्रियाथी भिन्न एवा तारा चैतन्यस्वरूपने जाण. आ इन्द्रियादि मूर्त पदार्थो तारा कांई नथी. माटे त्यांथी लक्ष हठावी, उपयोगने स्वस्वरूपमां जोडी दे. अरेरे! विज्ञानघन प्रभु आत्मा मूर्त कलेवरमां मूर्छाई जाय ए तो महा कलंक ने महा विपरीतता छे.

भाई! यथार्थ समज्या विना (एकांते) कर्मथी राग थाय, ने रागथी-शुभरागथी धर्म थाय एम तुं माने पण ते बराबर नथी. जो कर्मथी राग थाय तो कर्म-पुद्गल ज संसार थयो, पण संसार तो जीवनी विकारी पर्याय अर्थात् विभाव दशा छे, अने ते पोतानी योग्यताथी थई छे, कर्मने लईने नहि. तथा जो शुभरागथी धर्म थाय तो शुभराग ज धर्म ठर्यो, पण धर्म तो वीतरागतारूप छे. अहा! आ प्रमाणे यथार्थ तत्त्वद्रष्टि थया विना, आत्मभान विना कोई मुनिपणुं-द्रव्यलिंग बहारमां अंगीकार करे, पण तेथी शुं? श्री प्रवचनसारमां तेने संसारतत्त्व कह्युं छे. द्रव्यलिंग धारण करे, पंच